भारत में दिनों दिन पुरुषत्व में वृद्धि हो रही है. यानि मर्दानगी बढ़ रही है. आप कहेंगे हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है तो पुरुषत्व अधिक होगा ही. लेकिन दिन पर दिन बढ़ते हुए इस पुरुषत्व पर थोड़ा सा विचार किया जाये तो बात स्पष्ट हो जायेगी. प्रतिदिन अखबारों में दो तीन बलात्कार की घटनाओं को उल्लेख रहता ही है, साथ ही किसी पति का अपनी पत्नी की हत्या कर देने की खबर या दहेज के लिए मारपीट या जला कर मार देने की खबरें भी होती हैं. ऐसा लगता है कि मर्दानगी संभले नहीं संभल रही है. पते की बात तो यह है कि निर्भया कांड के समय समाज पूरी तरह से हिल गया था. जुलूस प्रदर्शन हुए और अपराधी को कठिनतम सजा देने की भी बात हुई बलात्कार के अपराधी को आजीवन करावास और मृत्युदंड की खबरें भी आती हैं. लोगों का विश्वास था कि कठोर सजा के डर से बलात्कार की घटनाएं बंद हो जायेंगी या कम हो जायेंगेी.

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. अब तो महिलाएं घर के बाहर और भीतर भी सुरक्षित नहीं रहीं. हुआ यह कि समाज इन घटनाओं के प्रति संवेदनशून्य हो गया और मर्दानगी के बढ़ते बाढ़ के आगे हथियार डाल दिये हैं.

पौरुष का प्रदर्शन तो अब भगवान को बचाने में भी लगाया जा रहा है. अयोध्या के राम लला के अधकारों की लड़ाई लड़ी गयी, तो अब मथुरा में कृष्ण की या फिर काशी विश्वनाथ के हक की लड़ाई लड़ी जा रही है. इस युद्ध में हमारे देश के युवा लाठी भाले लेकर सड़कों पर उतर आते हैं. उन्हें लगता है कि सर्वशक्तिमान भगवान अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते. उनकी रक्षा उन्हें ही करनी होगी.

उनके विचार से हमारे देवी देवताओं के साथ जो अन्याय हो रहा है, उसका कारण या तो मुसलमान हैं या दूसरे धर्म के लोगा. कभी-कभी दलित उनके कोप के भाजन बनते हैं, कभी आदिवासी. हिंदु धर्म को बचाने के नाम पर दंगे करवा देना, मौब लिंचिंग कर देना, और मार काट मचा देना उनका कर्तव्य होता है. यहां तक कि इन्होंने अपनी इस लड़ाई में महाबली हनुमान का भी उपयोग कर लिया. मस्जिदों में लगे चोंगो को हटवाने के लिए खुद भोपू में हनुमान चालीसा का पाठ किया. इस तरह इन्होंने अपने पौरुष की एक मिसाल पूरी दुनिया में कायम किया.

अब तो उनके उनके इस पौरुष से महिलाएं भी प्रेरित हो रही हैं. मुबई में सांसद साहिबा हनुमान चालीसा प्रकरण में महाराष्ट्र सरकार को चुनौती दे कर जेल तक चली गयी. बनारस की पांच महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की कि ज्ञानवापी मस्जिद में कैद श्रृंगार गौरी को मुक्त कर उनकी पूजा अर्चना करने का मौका उन्हें दिया जाये.

और तो और अब हमारे सिनेमा में भी मर्दानगी का ऐसा प्रदर्शन होता है कि दंग रह जाना पड़ता है. एक अकेला हीरो दस बीस गुंडों को काट कर फेंक देता है. इस दौरान खून तो बहता ही है और भयंकर हिंसा का प्रदर्शन देख कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. आरआरआर, केजीएफ, पुष्पा जैसी फिल्में सैकड़ों अरब कमा कर निर्माताओं, थियेटर के मालिकों तथा सरकार को मालामाल तो कर रही हैं, लेकिन इनमें हिंसा, क्रूरता और संवेदनहीनता के अलावा कुछ नहीं होता है.

ऐसी फिल्में समाज से प्रेरित हो कर बनती हैं या समाज के युवा इन फिल्मों को देख कर हिंसा का पाठ पढ़ रहे हैं और सड़कों पर अपने पौरुष का प्रदर्शन कर रहे हैं, यह विचारणीय है. उन मर्दानगी दिखाने वाले युवाओं को भी समझना चाहिए कि असली मर्दानगी असहायों, अपने से कमजोर लोगों को मदद करने और उनमें सुरक्षा का भाव जगाने में है. झुंड बना कर किसी को पीट देने में या स्त्रियों के साथ अनाचार-अत्याचार करने में नहीं.