झारखंड में कुड़मी और आदिवासी विवाद इस कदर उलझ गया है कि सुलझने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है. कभी-कभी लगता है कि यदि शहीदे आजम भगत सिंह झारखंड में होते तो वे भी इस मसले को लेकर उलझ जाते, क्योंकि देखने में आ यह रह है कि आदिवासी और कुड़मी, दोनों समुदायों में अधिकतर युवा भगत सिंह को अपना नायक तो मानते हैं, लेकिन इस सवाल पर एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं.

आश्चर्य तो यह होता है कि छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जुड़ कर झारखंड में वर्षों काम करने वाले साथियों में भी इस सवाल को लेकर दुविधाग्रस्त मनःस्थिति है. आदिवासी और कुड़मी समुदाय के युवा इस मसले पर खुले मन से बात चीत नहीं कर पा रहे हैं. आप कहेंगे, वाहिनी से जुड़े लोगों में ऐसी क्या खास बात है? तो, वह यह कि जेपी के नेतृत्व में 75 में बनी छात्र युवा संघर्ष वाहिनी संपूर्ण क्रांति के लिए समर्पित युवा संगठन है जो धर्म, जाति और वर्ण की राजनीति से भरसक परहेज करता है. वैसे, अभी संवादहीनता की स्थिति तो नहीं पहुंची है, लेकिन दोनों समुदायों के युवा साथियों में इस सवाल पर मतभेद स्पष्ट नजर आता है.

हालत यह है कि बेरोजगारी की समस्या विकराल होती जा रही है. सार्वजनिक या निजी औद्योगिक प्रतिष्ठानों में रोजगार के अवसर सिमटते जा रहे हैं. सरकारी नौकरियां भी कम होती जा रही है. नियमित नौकरी की जगह अनुबंध वाली नौकरी और साल दर साल आश्वासनों का दौर चल रहा है, जहां बहालियां कम सब्जबाग ज्यादा दिखाये जाते हैं. भीषण महंगाई, देश की परिसंपत्तियों का मुट्ठी भर हाथों में संकेंद्रण होता जा रहा है. झारखंड की खनिज संपदा और श्रम शक्ति का दोहन कर कारपोरेट जगत के कुछ लोग दुनियां के अमीर देशों की सूची में शामिल हो रहे हैं. शिक्षा का निजीकरण और वह बेहद महंगी होती जा रही है. इन गंभीर समस्याओं से टकराने के बजाये आरक्षण के बलबूते शोषण उत्पीड़न पर टिकी इस व्यवस्था में ही अपने लिए थोड़ी सी जगह बना लेने के लिए आपस में मार काट मची हुई है.

ईमानदारी से सोचिये, यह मसला अस्मिता और पहचान का मसला है? कुड़मी और आदिवासी सदियों से साथ-साथ रहते आये हैं. कुड़मी समुदाय की गणना भी आदिवासी के ही रूप में होती थी. फिर वह कौन सी परिस्थितियां और कारक रहीं जिसमें कुड़मी आदिवासी श्रेणी से बाहर हो गये? यह सिर्फ साजिश थी या कहीं से आदिवासी कहे जाने जाने से होने वाली कुंठा भी? इसका व्यावहारिक पक्ष तो यह हुआ कि कुड़मियों की जमीन पूरे उत्तरी छोटानागपुर में आसानी से सर्वाजनिक कारखानों, खदानों के लिए मुक्त हो गयी. विस्थापित सिर्फ आदिवासी नहीं हुए, कुड़मी भी हुए. बोकारो कारखाना के लिए उजउ़ने वाले अधिकर गांव कुड़मियों के थे. पूरा धनबाद कुड़मियों की जमीन पर बसा है.

और कुड़मी आदिवासी विवाद का राजनीतिक प्रभाव यह कि जिस भाजपा का कुछ दशक पूर्व तक झारखंड में कोई नामलेवा नहीं था, वह आज सत्ता की प्रमुख दावेदार है, बल्कि झारखंड बनने के बाद उसने सबसे अधिक समय तक झारखंड पर राज भी किया. क्या इसके मूल में कुड़मी आदिवासी विवाद नहीं है? कभी-कभी तो यह आशंका होती है कि दोनों समुदायों में कुछ ऐसे लोग हैं जो दरअसल इस विवाद को तूल देकर भाजपा को राजनीतिक लाभ पहुंचाने की जुगत में लगे रहते हैं. वरना झारखंडी एकता को तोड़ने वाले इस तरह के मुद्दंे भाजपा के शासन काल में क्यों नहीं तूल पकड़ते? कई बार भाजपा की सरकार आजसू के समर्थन पर ही चली. उस वक्त क्यों नहीं कुड़मियों को आदिवासी सूची मे शामिल करने की मुहिम चली?