दो दिन पहले अखबार के साथ आया एक पर्चा देखने को मिला जिसमें ‘फुल खाते पीते’ एक महीने में 7 केजी वजन घटाने की बात कही गयी गयी थी. दावा यह भी किया गया था कि इसके लिए न तो उबला खाना खाने की जरूरत है और दवा और व्यायाम आदि की. मुझे उनके दावों पर सोचने का वक्त नहीं था. मेरे दिमाग में कुछ और बातें घूमने लगी थी जो उसी अखबार में छपी थी जिसमें बताया गया था कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2021 में 116 देशों में भारत का स्थान 101 है. यह दर्शाता है कि भारत में बहुत बड़ी जनसंख्या ऐसी है जो भुखमरी का सामना कर रही है. यह हमारे देश के लिए चिंता का विषय है.

2020 में भारत 107 देशों में से 94 वें स्थान पर था. 2021 में भारत का जीएचआई स्कोर 50 में से 27.5 दर्ज किया गया है, जो गंभीर श्रेणी में आता है. जीएचआई स्कोर चार संकेतकों के आधार पर निर्धारित किया जाता है. बच्चों में अपर्याप्त कैलोरी सेवन, उम्र के अनुपात में लंबाई में कमी यानि बौनापन, कद के हिसाब से वजन में कमी और बाल मृत्यु दर. यह सब अपर्याप्त पोषण और अस्वास्थ्यकर वातावरण के घातक मिश्रण को दर्शाता है. इस लिहाज से देखें तो साल दर साल भारत की स्थिति खराब होती जा रही है.

विडंबना यह कि इस भूखे, कुपोषित मुल्क में अब चारो ओर वजन घटाने का व्यापार जोर शोर से चल रहा है. जिधर देखो उधर नित नये जिम खुल रहे हैं जहां पर मोटी रकम देकर लोग मोटापे को 15 व 20 दिन में कम कर सकते हैं. योग करके स्वस्थ रह सकते है. सुंदर बनाने और वजन घटाने की दुकान चलाने वालों में से कुछ ऐसे भी हैं जो कहेंगे कि आपको उबले भोजन खाने की जरूरत नहीं और न व्यायामक करने की मशक्कत ही करनी है. बस आपको हम कुछ ऐसे उपाय बतायेंगे कि एकाध महीने में ही आपका वजन 7 किलो कम हो जायेगा.

इसी के समानांतर चारो तरफ खुलते ब्यूटी पार्लर, जो शरीर को सुगठित और त्वचा का चमकीला बनाने के उपाय बताते हैं. और उपाय के नाम पर भोजन कम करने, वसायुक्त भोजन न करने व व्यायाम करने पर ही सारा जोर रहता है. एक गरीब दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए कठिन परिश्रम कर पसीना बहाता है ताकि पैसा कमा कर वह अपना और अपने परिवार का वपेट भर सके, दूसरी और सोचने वाली बात यह कि इस कुपोषण की शिकार दुनिया में कुछ लोग ऐसे है जो एक्सरसाइज, वर्कआउट व जिम योगा करके पसीना बहाते है और इसके लिए मोटी रकम खर्च करते हैं.

अब हमारे आदिवासी समाज में भी कुछ लोगों को व्यायाम करने और जिम जाने की जरूर पड़ने लगी है, वैसे, हमारे समाज के अधिकतर युवकों और युवतियों को इन सब की जरूरत नहीं पड़ती. उन्हें जिंदा रहने के लिए ही इतना श्रम करना पड़ता है कि उन्हें अलग से वर्कआउट करने की जरूरत नहीं.

लेकिन फिर भी यह सवाल तो सामने है ही कि हमारे समाज में इतनी विसंगती क्यों है? एक तबके के पास इतना पैसा और संसाधन कहां से आता है कि वह बैठे-बैठे खा कर मुटिया जाता है, दूसरी तरफ कठोर श्रम करके भी एक बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है जो अपने बच्चों को भरपेट खाना नहीं खिला पाते और वे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं.