जहां लोकतंत्र ‘प्रैक्टिस’ में है वहां प्रभुवर्ग लोगों को ‘प्रैक्टिकल’ होने की नसीहत देता है, वहां ‘निकम्मापन’ और ‘क्रियाशीलता’ दोनों एक ही ‘सिक्के’ के दो पहलू हो जाते हैं, जिसे ‘भ्रष्टाचार’ कहा जाता है। आम तौर सब कहते हैं कि भ्रष्टाचार खोटा सिक्का है, लेकिन आज ‘राजनीति के बाजार’ और ‘बाजार की राजनीति’ की लेन-देन में यह सिक्का बखूबी चल रहा है। इसका उदाहरण - नौ साल बासी भी और सबसे ताजा भी (!) - है निर्वाचन आयोग की ‘अकर्मण्यता’ और ‘क्रियाशीलता’। एक तरफ चुनाव आचार-संहिता का जान-बूझ कर उल्लंघन करते प्रत्याशी नेताओं के खिलाफ कारवाई करने के मामले में उसकी ‘अकर्मण्यता’ और दूसरी तरफ रिश्वत देकर वोट खरीदने के बे-रोक-टोक जारी धंधे के खिलाफ कारवाई करने के मामले में उसकी ‘क्रियाशीलता’! उसकी स्थिति को ‘प्रतीक’ रूप में शायद सिर्फ एक शब्द से ही समझा जा सकता है - ‘कागभगौआ’! लोकतंत्र के खेत में विशाल आकार के निर्जीव ‘कागभगौआ-सा’ निर्वाचन आयोग खडा है, लेकिन खड़ी फसल को चुगते चिड़ियों के झुंड के झुंड जैसे पार्टी-प्रत्याशियों को ‘डराने-भगाने’ में असमर्थ है।

पिछले नौ साल में ‘भ्रष्टाचार’ लोकतंत्र में ऐसा ‘स्पेस’ रच चुका है, जिसके बीच से गुजरे बिना ‘लोक’ और ‘तंत्र’ के बीच परस्पर सम्पर्क-संवाद या सहयोग-सहभागिता भी संभव नहीं है। यह ‘स्पेस’ कोयला-खदान की अंधेरी सुरंग जैसा है। जहां का लोकतंत्र अपनी परंपराओं के सफेद वस्त्रों से लैस रहता है, यानी जो समाज ‘लोकलाज’ को लोकतंत्र की बुनियादी शर्त मानने पर दृढ़ रहता है, वह इस सुरंगनुमा ‘स्पेस’ के इस्तेमाल से इनकार करता है। जो समाज परंपरागत गलियों एवं कच्चे रास्तों को विकसित करने और मजबूत बनाने के प्रति सचेत रहता है, वह इस सुरंग-स्पेस को ‘डिफंक्ट’ भी कर सकता है और ‘ध्वस्त’ भी। लेकिन जो समाज ‘विकास’ के नाम पर तेजी से आगे बढ़ने के लिए इस ‘स्पेस’ से गुजरने का ‘शार्टकट’ अपनाने को ‘आसान’ या ‘प्रैक्टिकल’ उपाय मानता है, वह परंपरागत कच्चे रास्तों को पक्का करने या उन्हें ‘टू वे ट्रैफिक’ मार्ग बनाने के प्रति कतई ‘सचेत’ नहीं होता। वह इस सुरंग से होकर गुजरने में ही ‘थ्रिल’ महसूस करता है दृ काजल की कोठरी से गुजरने का थ्रिल! तब वह परम्परागत रास्तों पर चलने को ‘आत्महीनता’ और ‘पिछड़ेपन’ की निशानी करार देता है। यहीं से उस सुरंगनुमा ‘स्पेस’ को स्थाइत्व मिलने लगता है। यहीं से लोकतंत्र में काजल की कोठरी जैसा यह ‘स्पेस’ (भ्रष्टाचार का रास्ता) अपनी ‘अनिवार्यता’ और ‘स्थायित्व’ अर्जित कर लेता है।

‘काजल की कोठरी’ मुहावरा इतिहास के दायरे में आनेवाले हर युग में प्रचलित रहा है। हो सकता है कि इस मुहावरे की उत्पत्ति कल्पना जगत में हुई हो, जिसे हम देश और काल की सीमों से परे मिथकों, पुराण-कथाओं के जरिये पहचानते हैं। लेकिन ‘काजल की कोठरी’ के मुहावरे की काल्पनिक या वास्तविक अवस्थिति अतीत के इतिहासों या पुराणों में समाज के ऐसे ‘कोने’ के रूप में दिखती थी, जहां ‘कूड़ा’ फेंकने के लिए जाया जाता है। यानी समाज को साफ रखने के लिए किसी कोने में ‘कूड़ेदान’ बनाना पड़ता है ताकि दैनंदिन जीवन के कार्यों से जो गंदगी निकलती है, वह एक जगह जमा हो, पूरे समाज में नहीं फैले। एक जगह जमा करने का मतलब और मकसद यह कि पूरी गंदगी को एक जगह से निपटाया जाय। निपटान की इस क्रिया में विलम्ब भले हो, लेकिन यह समाज को ज्ञात रहता है कि ‘कूड़ाघर’ कहाँ है और उसमें जो कुछ जमा है, उसे जला देना है। जलाने का यह काम जरूरी और अनिवार्य है। किसी भी हालत में इस काम को होते रहना है। इसमें किसी भी तरह की रुकावट किसी को भी स्वीकार्य नहीं हो सकती। लेकिन जब यह स्पेस स्थाइत्व और अनिवार्यता ग्रहण कर लेता है, तब काजल की कोठरी से गुजरते हुए बेदाग रहने के प्रयास में ‘थ्रिल’ नहीं रह जाता। जो ‘काम’ आपके रुटीन में, दैनंदिन जीवन की गतिविधि में शामिल हो, उसको करने में ‘थ्रिल’ नहीं रहने का आशय यह नहीं होता कि उस काम में कोई नयापन नहीं रह गया, इसलिए उसको करने का रोमांच खत्म हो जाता है, बल्कि एक नया आशय प्रकट करने का रोमांच पैदा होता है। यानी काजल की कोठरी से गुजरते हुए ‘दाग’ लग जाएं, तो उनको छिपाने का थ्रिल और छिपाने में सफल नहीं हुए तो ‘दाग अच्छे हैं’ के ‘कंसेप्ट’ को समाज में स्वीकार्य बनाने के प्रयास का थ्रिल!

आज ‘दाग अच्छे हैं’ का ‘थ्रिल’ एक कंसेप्ट के रूप में स्वीकृत हो गया है, सो लोकतंत्र में काजल की कोठरी जैसा सुरंगनुमा स्पेस समाज-वृत्त के किसी कोने की बजाय केन्द्र में आ गया। ‘लोक’ और ‘तंत्र’ के बीच की साफ और सुगम आवाजाही के लिए जो स्पेस समाज के किसी ‘कोने’ में अवस्थित था, वह किसी कोने से केंद्र में शिफ्ट होकर लोकतंत्र की सत्ता-राजनीति और समाज-जीवन के केन्द्र में स्थायित्व पा गया! तब उस स्पेस से फैलनेवाले प्रदूषण से समाज-जीवन के अन्य क्षेत्रों को कैसे बचाया जा सकता है?