आदिवासी समाज और उसके चारो ओर का परिवेश तेजी से बदल रहा है. शहर में बसे आदिवासियों की जमीन तेजी से बिक रही हैं. राडे साईड की सारी जगहों पर दुकानंे बन गयी है. लेकिन उन दुकानें में शायद ही कोई दुकान आदिवासी का हो. सभी जगह गैर-आदिवासियों ने दुकानं बना लिया है.
अफसोस तो यह कि जब कोई आदिवासी भी अपनी जमीन पर दुकान बनाता है तो वह उसे किराये पर किसी आदिवासी को नहीं देता, किसी गैर आदिवासी को ही दुकान किराये पर देता है. क्योंकि उसे आदिवासियों पर भरोसा नही होता कि उसे सही समय पर किराया मिल पायेगा. वह आदिवासी को किराये पर दुकान देने से साफ इंकार कर देता है और गैर- आदिवासियों को बेझिझक किराया दे देता है.
क्या इसकी वजह यह कि वह भी यह जानता है कि आदिवासी से दुकानदारी नहीं होगी. हमारे समाज के अगुआ डा. रामदयाल मुंडा ने भी कहा था कि आदिवासी समुदाय व्यापार नही कर सकता. आखिर क्यों नही कर सकता आदिवासी समाज व्यापार, यह बात भी जानना जरूरी है.
दलालों ने अब नया तरीका अपनाया है. जमीन के मालिक के पास जाते ही नहीं, उसके बेटे को अपने साथ रख उसे जमीन की बिक्री के लिए राजी किया किया और बेटो से सिग्नेचर करवा कर जमीन हड़प लिया. दुनिया मे सभी तरफ लोग आदिवासियों को बेवकूफ बनाने को तैयार बैठे हैं. पैसे की लालच, दोपहिया वाहन आदि के लिए युवक राजी हो जाते हैं और परिणाम कि आज जिधर देखो उधर बस गैर आदिवासी नजर आते हैं. आदिवासी तोग तो जंगलों की तरह लुप्त हो जा रहे है.ं
अब यदि कोई अदिवासी जमीन बेच ही देता है तो उसे कुछ पैसा तो मिलता ही है. लेकिन वह उसे संजो का रखना नहीं जानता और न दुकान चलाना जानता है. हां, कुछ लोगों को इतना समझ आ गया है कि जमीन पर कमरा बना कर उसे किराये पर उठाया जा सकता है. लेकिन यह काम भी वह बहुत छोटे पैमाने पर कर पाता है. एक गैर आदिवासी जितनी जमीन पर बड़ा बिल्डिंग ठोंक कर लाखों रुपये किराये के रूप में कमाता है, उतनी जमीन पर पुराने ढर्रे के दो चार कमरे कतार में बना वह किराये पर उठा देता है.
लेकिन सही और सत्य बात तो यह है कि जिस तरह व्यापार में चालाकी, होशियारी, ठगी करना, ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना, जरूरी होता है, लेकिन यह हुनर आदिवासी के पास नहीं. इसी कारण वह व्यापार नही कर पाता. वह लोगों से ज्यादा पैसा वसूलना करना नही जानता. वो दुकान तो खोल लेता है, लेकिन उसे सही ढंग से चला नही पाता जिस कारण पहले लगातार घाटा होता है और फिर दुकान बंद करना पड़ जाता है.
तो क्या, हमारे आस-पास का समाज अब जिस तरह से चल रहा है, उस रंग में आदिवासी समाज को भी रंगना होगा? झूठ, फरेब और चालाकी, दूसरे के श्रम का शोषण करना सीखना होगा या इस बात को मान लिया जाये कि आदिवासी बनिया नहीं बन सकता?