अमेरिका में उसने अपनी शिक्षा कक्षा के कमरे में नहीं, बल्कि खेत - अंगूर की खेती - पर शुरू की। हजारों एकड़ में फैले खेत ‘रंच’ कहलाते हैं। वहां मुख्यतः अंगूर की ही खेती होती है, किंतु उसके साथ बादाम, खूबानी, नाशपाती आदि फल भी पैदा किए जाते थे। अंगूर को सुखाकर किशमिश बनाया जाता था। यार्ड में लंबे-लंबे तख्ते पड़े होते थे। जिन पर अंगूर को सूखने के लिए रख दिया जाता था।

लकड़ी की खुरपी होती थी, जिससे उलट-पुलट किया जाता था। इस उलट-पुलट के सिलसिले में सड़े अंगूरों को चुनकर फेंक दिया जाता था। अंगूर सूख जाने पर उसकी पैकिंग वगैरह की जाती थी। अंगूर की फसल खतम होने पर बादाम चुनने, खूबानियां तोड़ने आदि का काम शुरू होता। प्रतिदिन नौ घंटे के हिसाब से काम करना पड़ता था, जिसमें बीच में एक घंटे की छुट्टी जलपान और आराम के लिए दी जाती थी। फी घंटा 40 सेंट के हिसाब से मजदूरी मिलती थी, जो चार डालर रोजाना जा पड़ती थी। (उस जमाने में चार डालर हिंदोस्तान के 17 रुपये के लगभग होते थे।)। उसी दौरान पहले कदम पर विद्यार्थी जयप्रकाश नारायण का नाम ‘जेपी नारायण’ हो गया। उसने कैलिफोर्निया, जिसे अमेरिकन लोग ‘संसार का बगीचा’ कहते हैं, के यूनिवर्सिटी - कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी - से अपनी पढ़ाई शुरू की। बीस हजार विद्यार्थी, मीलों तक फैला लंबा-चैड़ा, खूबसूरत कैम्पस, मकान भी भव्य और सुंदर। विद्यार्थियों में लड़कियों की तायदाद काफी - जो लड़कों के साथ ही पढ़तीं, खेलतीं और होस्टलों में साथ ही रहतीं। प्रोफेसर भी बहुत अच्छे, प्रयोगशाला भी बहुत अच्छी, जिसकी भारत में कल्पना नहीं की जा सकती।

जयप्रकाश को पहले प्रोफेसरों के लेक्चर समझने में दिक्कत हुई, क्योंकि उनके उच्चारण में विभिन्नता थी। तो भी टर्म के अंत में जब परीक्षा हुई, प्रयोगशाला के प्रैक्टिकल को छोड़कर ‘ए’ ग्रेड प्राप्त हुआ, यानी सौ में नब्बे से ज्यादा नंबर!

लेकिन कैलिफोर्निया-यूनिवर्सिटी में फीस का बोझ दुर्वह था - करीब सौ रुपए माहवार! केलीफोर्निया विश्वविद्यालय का एक सत्र समाप्त होते-होते उसकी जेब खाली हो गयी। उसने केलीफोर्निया छोड़ने का फैसला किया। इसलिए एक टर्म पढ़कर उसने फिर मजदूरी की राह पकड़ी और पैसे कमाकर इयोवा पहुंचा। उसने इयोवा यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। वहां के विश्वविद्यालय में केलीफोर्निया की तुलना में फीस एक चैथाई ही लगती थी। वहां पढ़ाई के साथ कमाई का वक्त भी मिल सकता था। सो वह वहां भी पढ़ाई के साथ कमाई के लिए बागीचे में काम करने लगा।

इयोवा में जयप्रकाश दो टर्म - एक साल रहा। रविवार को जो छुट्टियां होती, उन्हें गपशप में नहीं बिताता। रविवार को वह भलेमानसों के मुहल्लों में निकल जाता। उनके फरनीचर साफ करता, उनमें वार्निश लगाता। घर की खिड़कियों और आलमारियों के शीशों की सफाई करता। कभी बर्फ पड़ी तो कुदाल लेकर घर से निकलता, किसी भलेमानस के आंगन की बर्फ काटकर, हटाकर उसे पूर्ववत साफ-सुथरा बना देता। इन छोटे-छोटे कामों से इतने पैसे कमाता जो पढ़ाई जारी रखने के लिए जरूरी थे।

इयोवा युनिवर्सिटी में पढ़ते वक्त ही जयप्रकाश को कुछ सवाल परेशान करने लगे। अमेरिका में खुद कमाने का और अपना विकास करने का अवसर सबको मिल सकता है, लेकिन यह क्या? ऐसे देश में भी बेहिसाब अमीरी के साथ बेहद गरीबी? इसका कारण क्या है? ऐसा क्यों है कि मुट्ठी भर लोग तो सारी दुनिया के ऐश्वर्यों का उपभोग करते हैं, और ज्यादातर लोगों को अभाव में और गरीबी में सड़ते रहना पड़ता है?

वह विज्ञान की पढ़ाई करते हुए भी ये सवाल लेकर युनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के प्रोफेसरों के पास पहुंच जाता था। वे कहते - पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में गरीबी के सवाल का कोई हल नहीं है। लेकिन उन प्रोफेसरों को विज्ञान की पढ़ाई करते जयप्रकाश के समाजशास्त्र एवं राजनीति से सम्बद्ध सवाल, उनकी जिज्ञासा और बहस करने का अंदाज बहुत अच्छा लगता। वे जयप्रकाश के सवालों को सुनते और उनसे दोस्त की तरह बहस करते। उन्होंने भी जयप्रकाश नारायण को ‘जेपी’ कहना शुरू कर दिया!

कमाई के साथ पढ़ाई के लिए जयप्रकाश इयोवा से शिकागो विश्वविद्यालय आया। शिकागो में भी तरह-तरह की मजदूरियां कीं - एक होटल में पाखाना साफ करने का काम, मेहतर का काम, किया। फिर मांस की फैक्टरी में लगा। कारखाने में छोटे-बड़े खाद्य-पशुओं - बैल, सुअर, बकरे - की हत्या, उनके मांस को डिब्बों में बंद करने का काम होता था। निरामिषभोजी, पक्के शाकाहारी जयप्रकाश का काम था कारखाने में जरूरी पावर सप्लाई का काम! कुछ दिन मिट्टी के बर्तनों के कारखाने में भी उसने अपने हाथ की आजमाइश की। वह मकानों की आभूषण-सामग्रियां बनाने का कारखाना था। कोनों, कोर्निसों में रखने के लिए तरह-तरह की मूर्तियां, गमले आदि यहां तैयार किये जाते। ढांचे में मिट्टी रखकर उन्हें ढालना, ढलाई के भद्देपन और रुखड़ेपन को साफ करने के लिए पालिश करना और सुंदर-सुडौल बनाकर उन्हें रंगना। जयप्रकाश ऐसे काम में पैसे के साथ आनंद की कमाई करने से नहीं चूकता! कमाने का मौका मिला, तो लोहे के कारखाने में भी लगा। स्क्रू, नट, बोल्ट तैयार करने के कारखाने में।

शिकागो युनिवर्सिटी में वह करीब ढाई साल रहा। शिकागो में रहकर अपनी पढ़ाई के लिए मजदूरी के किसी भी तरह के काम करने की ओर प्रवृत्त हुआ, तो विदेशों में पढ़नेवाले तमाम भारतीय युवा मित्रों के लिए वह जयप्रकाश से ‘जेपी’ हो गया!