ठीक चुनाव के पहले समान नागरिक संहिता का कानून - यूसीसी- उत्तराखंड में लागू हो गया. मोदी टीवी के सभी चैनलों में स्क्रीन पर आकर बड़ी मासूमियत से कहते हैं कि एक परिवार में यदि अलग अलग सदस्यों के लिए अलग-अलग कानून और अधिकार होंगे तो परिवार कैसे चलेगा? जबकि इस तथ्य को सभी समझ सकते हैं कि असमान संपत्ति के वितरण और भीषण विषमता के रहते समान अधिकारों की बात करना पाखंड के सिवा कुछ नहीं.

अपनी न्याय यात्रा के सभी सभाओं में राहुल गांधी सामाजिक, आर्थिक और सत्ता प्रतिष्ठानों में मौजूद इस भीषण विषमता की बात उठा रहे हैं. लेकिन कहां, टीवी के सभी चैनलों में छाये मोदी के झूठ और कहां राहुल की सभाओं के सच की प्रिंट मीडिया में मिलने वाली किसी कोने की छोटी सी जगह? इलेक्ट्रोनिक मीडिया में तो राहुल की न्याय यात्रा को कवरेज नहीं ही मिल रहा. हां, यू ट्यूब के स्वतंत्र चैनलों- आडियों-वीडियो के प्रसारणों में राहुल की धमक भरी आवाज में उस सच को आप सुन सकते हैं.

न्याय यात्रा के लगभग हर सभा में राहुल आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में व्याप्त विषमता की बात पुरजोर स्वर में कह रहे हैं. जातीय जनगणना की वकालत करते हुए उन्होंने कल उत्तर प्रदेश की सभाओं में कहा कि आदिवासी, दलित और पिछड़े मिल कर आबादी के 73 फीसदी हैं, लेकिन देश के शीर्ष कंपनियों में किसी एक में भी इस संवर्ग के एक व्यक्ति की भी कंपनी नहीं. केंद्र सरकार की शीर्ष ब्यूरोक्रैशी में 90 अधिकारी है जिनमें महज 3 इस संवर्ग के हैं. प्राईवेट अस्पताल हो या शैक्षणिक संस्थान, सबके सब सवर्णों के? सबसे महत्वपूर्ण तथ्य उन्होंने यह कही कि जीएसटी के रूप में 18 फीसदी सबों से वसूला जाता है चाहे वह अंबानी जैसा अमीर हो या नरेगा मजदूर. खजाने में पैसा गरीब का ही होता है जिसे वे अमीरों पर लुटाते हैं.

दरअसल, समान नागरिक संहिता का एकमात्र उद्देश्य मुसलमानों के प्रति हिंदुओं को बरगलाकर उन्हें चुनावी राजनीति के लिए गोलबंद करना है. आदिवासियों को इससे अलग रखा गया है, क्योंकि आदिवसियों से बिगाड़ नहीं लेना चाहते. आदिवासी इलाके इस कानून के दायरे में नहीं आयेंगे.

विडंबना यह है कि 73 फीसदी आबादी वाली जमात - पिछड़े, दलित और आदिवासी- मोदी के प्रोपगेंडा के शिकार होते जा रहे हैं. उन्हें जमीनी हकीकत से वास्ता नहीं. वे इतने से खुश हो जाते हैं कि देश का राष्ट्रपति कोई आदिवासी या दलित हो जाये. जन प्रतिनिधि के रूप में भाजपा में सबसे अधिक इस समुदाय के लोग हैं. वजह यह कि आरक्षित सीटों की वजह से दलित, आदिवासी और पिछड़े सांसद तो बनते हैं, लेकिन यदि वे भाजपा के उम्मीदवार के रूप में जीतते हैं तो भगवा रंग में रंग जाते हैं और उन नीतियों का विरोध करने की उनमें हिम्मत नहीं रहती जो गरीब जनता के हितों के खिलाफ चल रहे हैं.

जहां तक अल्पसंख्यकों का सवाल है, भाजपा इस तथ्य को जानती है कि यदि दलित, आदिवासी, पिछड़ों की 73 फीसदी आबादी में अल्पसंख्य मिल दिये जायें तो सारा समीमरण ही बिगड़ जायेगा, इसलिए वह अल्पसंख्यकों - मुसलमान, ईसाई और सिखों - को अपने टारगेट पर रखती है. मुसलमान उनकी नजर में आतंकवादी, ईसाई धर्मांतरण कराने वाले और सिख भिंडरावाले के समर्थक. किसान आंदोलन के प्रति उनके कउ़े रुख की एक वजह यह भी कि उसे वे सिख किसानों के आंदोलन के रूप में देखते और दिखाते हैं. तो एक तरफ उनसे बहुसंख्यक हिंदुओं का बिलगाव करना और उन्हें भाजपा के पक्ष में गोलबंद कर आर्थिक क्षेत्र में व्याप्त गैर बराबरी को बनाये रखना.

बहुसंख्यक जनता इस बात को कब समझ पायेगी?