स्त्री-पुरुष समानता की दृष्टि से आदिवासी समाज बेहतर समाज है. वहां स्त्री आत्मनिर्भर और भरसक आजाद है. वहां कन्या भ्रूण हत्या नहीं होती. उस समाज में दहेज नहीं. वहां स्त्रियां दबाव या प्रलोभन से पुरुष दरबार में नाचने के लिए मजबूर नहीं, जिसे एक पुराने फिल्मी गीत में दशकों पहले व्यक्त किया गया था - ‘औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया…’ अभी अंबानी पुत्र के प्री बेडिंग समारोह में रिहन्ना के 72 करोड़ वाले नाच की बहुत चर्चा हो रही है. लेकिन इसके लिए रिहन्ना दोषी नहीं. सामंती युग से आज की पूंजीवादी व्यवस्था में औरत मर्दों के लिए नुमाईश की वस्तु है और पुरुष दरबार में नाचने के लिए मजबूर भी. लेकिन आदिवासी समाज कभी ऐसा नहीं रहा.

लेकिन आदिवासी समाज में औरत यदि आजाद है, या उसका गरिमापूर्ण स्थान है, तो कैसे? तो, इसे बताने के लिए मैं आज कोई लंबी चैड़ी दलील नहीं दूंगा, बस एक छोटा सा ब्योरा दूंगा.

मैं जिन बच्चों को एक आदिवासी बस्ती में पढ़ाता हूं, उनमें से कई लड़कियां अब किशोर वय की हो गई हैं. एक लड़की दो दिन नहीं आई तो मैं उसके घर यह पूछने चला गया कि वह पढ़ने क्यों नहीं आ रही.

उसका जवाब था कि वह रेजा का काम करने जाने लगी है. थक जाती है. इसलिए शाम को पढ़ने नहीं आ पाती.

उस लड़की ने हाल में इंटर की परीक्षा दी है. कुछ माह पूर्व वह बीमार भी हो गयी थी और उसे कई बोतल पानी चढ़ाने की नौबत आ गयी थी. मेरे मन में उसके प्रति करुणा उत्पन्न हुई.

मैंने उससे पूछा - काम करने की क्या मजबूरी है?

वह खामोश रही. मुझे लगा कि उपभोक्ता संस्कृति का दबाव है. हो सकता है मोबाईल खरीदना चाहती हो, इसलिए कुछ दिन काम करना चाहती है.

‘ क्या मोबाईल खरीदना है?’

‘नहीं. मोबाईल है.’

‘तो, माता पिता काम करने के लिए दबाव दे रहे हैं?’

‘नहीं.’

‘यदि पाकेट खर्च की जरूरत हो तो मुझसे कहो, लेकिन पढ़ना मत छोड़ो.’

‘ नहीं.. . यह बात नहीं.’

‘तो क्या बात है?’

फिर उसने जो कहा उससे मैं स्तब्ध रह गया.

‘.. मैं चाहती हूं कि यह शरीर हर तरह के परिश्रम के लायक बना रहे. कभी जरूरत पड़े तो रेजा का काम मैं कर सकूं.’

मैं उस लड़की को देखता रह गया. वह छुटपन से अन्य बच्चों के साथ मुझसे पढ़ती रही है. पता नहीं था, कि कब वह इतनी परिपक्व हो गयी. उसके ख्वाब बड़े हैं, लेकिन वह मजबूती से अपनी जमीन पर भी खड़ा रहना चाहती है. और वह अकेली नहीं है.