पिछले विधानसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन को जो प्रचंड बहुमत मिला, वह झारखंड में वंचितों की एकजुटता का परिणाम है और इस एकजुटता को बनाने का श्रेय बहुत दूर तक हेमंत सोरेन के सूझबूझ को जाता है. लेकिन कुछ राजनीतिक शक्तियां इस एकजुटता को तोड़ने में लगी हैं और इसके टूल बने हुए हैं ऐसे भी कुछ लोग जो सामान्यतः सांप्रदायिक शक्तियों के विरोधी हैं.

हाल में हुए विधानसभा चुनावों में कई राज्यों में भाजपा ने जीत हासिल की. गेरुआ रंग का विस्तार तेजी से हो रहा है. हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार, ओड़िसा से लेकर उत्तरपूर्व के असम-त्रिपुरा तक. उत्तर भारत में सिर्फ झारखंड और बंगाल उसे चुनौती दे रहा है अब तक. बंगाल में भी उसे करारी हार मिली और झारखंड में भी. हालांकि, इन दोनों राज्यों में भी भाजपा ने एड़ी चोटी का जोर लगाया. लेकिन वह सफल नहीं हुई.

झारखंड में तो भाजपा बिहार से लगे कुछ इलाकों में सिमट कर रह गयी. उसे सिर्फ 21 सीटें मिली, जबकि झामुमो ने अपने दम 34 सीटें जीती, इंडिया गठबंधन की दूसरी पार्टी कांग्रेस ने 16, राजद ने 4 और माले ने 2 सीटें. इंडिया गठबंधन की कुल सीटें हुई 56. और इस पराजय से राज्य में भाजपा हतप्रभ है. विधानसभा में अपना नेता तक मनोनीत नहीं कर पा रही है. केंद्रीय एजंसियों की तिकड़में ठंढ़ी पर गयी है. और यही बात भाजपा और उनकी समर्थक शक्तियों को परेशान किये हुए है. वे किसी भी तरह से वंचितों की इस एकजुटता को तोड़ने में लग गये हैं.

पेसा की नियमावली को लेकर गुटबाजी हो रही है. इसमें तो गुजरात कनेक्शन वाले एक गुट का हाथ है ही, कांग्रेस के भीतर भी जो गुटबाजी रामेश्वर उरांव और उनके विरोधियों के बीच हो रही है, उसकी वजह से भी पेसा नियमावली को लेकर गुट बन गये हैं. प्रचंड बहुमत से सरकार बनायी है झामुमो ने और पेसा के बहाने आदिवासी जनता के रहनुमा बनने का दावा कर रहे हैं वे लोग जिनका जनता के बीच कोई जनाधर नहीं. एनजीओ जगत का एक प्रिय विषय है ग्रामसभा का सशक्तिकरण. वे भी सक्रिय हो गये हैं.

इसके समानांतर एक बार फिर कुड़मियों को जनजाति का दर्जा देने की मांग मुखर होने लगी है. और इन सब का एकमात्र लक्ष्य झारखंड में बने सामाजिक समीकरण को छिन्न भिन्न करना है. बाबूलाल के जमाने में डोमेसाईल का हौवा खड़ा कर बहिरागतों को भाजपा के पक्ष में गोलबंद किया गया. कुड़मी को जनजाति का दर्जा देने की मांग के बहाने आदिवासी कुड़मी विवाद पैदा किया गया. सरना और ईसाई आदिवासी का तफरका पैदा किया गया. और इसके बदौलत भाजपा ने झारखंड बनने के बाद राज किया.

यहां एक बात और ध्यान देने की है. पूरी दुनिया में नस्लवाद और सांप्रदायिकता-धार्मिक कट्टरता नये सिरे से पैदा हो रही है. पूरे यूरोप और अमेरिका में अश्वेतों के प्रति गोरों का आक्रोश ही ट्रंप की ताकत बन गयी है. पेसा को हर मर्ज की दवा बताने के नाम पर आदिवासी बनाम गैर आदिवासी की राजनीति हितकर नहीं, क्योंकि गैर आदिवासी में सिर्फ बहिरागत नहीं आते, झारखंड के सदान भी आते हैं, दलित और मुसलमान भी आते हैं. झारखंड में एसटी सीटें सिर्फ 28 है. 56 सीटें तो आप हेमंत सोरेन के सामाजिक समीकरण व वंचितों की एकजुटता से ही प्राप्त कर सकते हैं.

क्या सरना कोड, डोमेसाईल नीति, भूमि अधिग्रहण कानून में भाजपा शासन में किये गये संशोधनों की वापसी, सिंचित भूमि का विस्तार, सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की कार्य संस्कृति में सुधार व भ्रष्टाचार कम महत्वपूर्ण मुद्दे हैं? इनको लेकर बहस और आंदोलन क्यों नहीं हो रहे? इस बात को समझने की जरूरत है.