इसी शीर्षक से कोई दो वर्ष पहले इस मुद्दे पर कुछ लिखा था. तब लगा कि शायद इस मामले का सच कभी सामने नहीं आयेगा. मगर अचानक अंधेरी सुरंग में एक रोशनी दिखने लगी है. खबरों के मुताबिक आरटीआई एक्टिविस्ट नीरज शर्मा की याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट में इस मामले पर मंगलवार को सुनवाई हुई, जो 19 फरवरी को जारी रहेगी. सोचा, वही लेख कुछ संशोधनों के साथ फिर से शेयर कर दूँ, लेकिन संशोधन के क्रम में लगभग नया ही हो गया, बस शीर्षक रह गया.
दिल्ली और गुजरात विश्वविद्यालय ने तो कुछ बताने से मना ही कर दिया था. केंद्र सरकार का भी, स्वाभाविक’, ही वही स्टैंड था. सो, गुजरात विश्वविद्यालय की ओर से पैरवी कर रहे महाधिवक्ता (सॉलिसीटर जेनरल) तुषार मेहता भी उनके तर्कों को उचित बताने में और मोदी जी की शैक्षणिक योग्यता के बारे में जिज्ञासा को बेमानी साबित करने के लिए भारी भरकम तर्क दिये थे. सुनवाई पर रोक लग गयी थी. अभी दिल्ली हाईकोर्ट में एक बार उसे लंबित याचिका पर फिर बहस हुई, इस बार महाधिवक्ता की दलीलों से माननीय न्यायाधीश जस्टिस सचिन दत्ता बहुत प्रभावित नहीं लगे. आगे जो हो.
उल्लेखनीय है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी ने यह जानकारी मांगे जाने पर कहा था कि ‘यह जनहित का मामला नहीं है, महज जिज्ञासा पर आरटीआई स्वीकार्य नहीं.’ महाधिवक्ता (सॉलीसीटर जेनरल) तुषार मेहता ने गत मंगलवार को जस्टिस सचिन दत्ता के समक्ष यूनिवर्सिटी की ओर से यही दलील दी. अदालत 2017 में दायर दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें केंद्रीय सूचना आयोग के एक आदेश को चुनौती दी गई थी. उसमें 1978 में बीए पास करने वाले छात्रों के रिकॉर्ड की जांच की अनुमति देने का निर्देश दिया गया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी, उनके अनुसार, उसी साल परीक्षा पास की थी. इस आदेश पर 24 जनवरी 2017 को सुनवाई की पहली तारीख पर ही रोक लगा दी गई थी. एसजी तुषार मेहता ने अपनी दलील में कहा, ‘यहां एक मामला है जहां एक अजनबी विश्वविद्यालय के आरटीआई कार्यालय में आता है और कहता है कि 10 लाख छात्रों में से मुझे एक्स की डिग्री दे दो. सवाल यह है कि क्या कोई आकर दूसरों की डिग्री मांग सकता है?’ यह भी कि केवल जिज्ञासा कि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत विवरण चाहता है, आरटीआई अधिनियम के तहत ऐसी जानकारी का खुलासा करने का तर्क नहीं है.
सूचना के अधिकार के प्रति इस सरकार का क्या रवैया है, यह महाधिवक्ता की दलीलों से भी पता चलता है. उन्होंने कहा, ‘मैं इसके विस्तार में नहीं जा रहा हूं. यह अधिनियम अच्छे उद्देश्य को पूरा करता है, लेकिन इसकी अपनी खामियां हैं और इसका दुरुपयोग किया जा रहा है और अदालतों ने कई शब्दों में सभी को सतर्क कर दिया है.
गुजरात हाईकोर्ट ने भी सीआईसी के 2016 के उस आदेश को रद्द कर दिया था, जिसमें गुजरात विश्वविद्यालय को दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल को ‘नरेंद्र दामोदर दास मोदी के नाम से डिग्री के संबंध में सूचना’ देने का निर्देश दिया गया था. आरटीआई कार्यकर्ता नीरज कुमार ने भी आरटीआई आवेदन दायर कर 1978 में बीए की परीक्षा देने वाले सभी छात्रों का परिणाम उनके रोल नंबर, नाम, अंक और परिणाम पास या फेल होने की जानकारी मांगी थी. मगर डीयू के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी ने इस आधार पर सूचना देने से इनकार कर दिया कि वह ‘तीसरे पक्ष की सूचना’ के रूप में अयोग्य है. इसके बाद आरटीआई कार्यकर्ता ने सीआईसी के समक्ष अपील दायर की. सीआईसी ने 2016 में पारित आदेश में कहा था, ‘मामले की जांच करने के बाद कानून बनाने और पूर्व में लिये गये फैसलों की पड़ताल के बाद आयोग का मानना है कि छात्र की शिक्षा से जुड़े मामले सार्वजनिक दायरे में आते हैं और इसलिए संबंधित लोक प्राधिकार को इसी के अनुसार सूचना देने का आदेश दिया जाता है.’ सीआईसी ने माना था कि प्रत्येक विश्वविद्यालय एक सार्वजनिक निकाय है और डिग्री से संबंधित सभी जानकारी विश्वविद्यालय के निजी रजिस्टर में उपलब्ध है, जो एक सार्वजनिक दस्तावेज है.
2016 में दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री केजरीवाल द्वारा आरटीआई के तहत सवाल करने पर केंद्रीय सूचना आयुक्त ने दिल्ली विश्वविद्यालय से कहा था कि वह 1978 के रिजल्ट की जानकारी सार्वजनिक करे. कथित तौर पर नरेंद्र मोदी ने 1978 में दिल्ली विश्वविद्यालय से बीए किया था. उसके बाद गुजरात यूनिवर्सिटी से ‘एंटायर पॉलीटिकल साइंस’ में एमए. तभी पहली बार लोगों ने जाना कि ‘एंटायर पॉलीटिकल साइंस’ भी कोई विषय होता है, इससे भी जिज्ञासा हुई, संदेह भी हुआ. उसी दौरान दिवंगत अरुण जेटली और भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में नरेंद्र मोदी का ‘सर्टिफिकेट’ भी दिखाया था. यदि वह सचमुच सर्टिफिकेट ही था तो उसे सार्वजनिक करने से मोदी जी को, भाजपा या देश को क्या नुकसान हो जायेगा? हालांकि खुद मोदी जी एक साक्षात्कार (राजीव शुक्ला को, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे) में बता चुके हैं कि उन्होंने स्कूल तक की पढ़ाई की. फिर घर छोड़ कर निकल गये थे. जानकारी तो यही है कि वे संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गये. फिर भी उन्होंने बीए, फिर एमए किया, यह बड़ी बात है, लेकिन डिग्री दिखने से क्या उनका सम्मान कम हो जायेगा? यह इतना ‘गोपनीय’ है कि उसे सामने नहीं आने देने के लिए सरकार को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है? इसके लिए केंद्रीय सूचना आयुक्त तक के आदेश को चुनौती दी गयी. दिल्ली यूनिवर्सिटी और गुजरात यूनिवर्सिटी की ओर से भारत के सरकार के सॉलीसीटर जनरल ने इस मामले में बहस की कहा कि यह जानकारी सार्वजनिक नहीं की जा सकती. यह दलील भी दी कि कुछ लोग आरटीआई कानून का दुरुपयोग करते हैं, लोगों को परेशान करने के लिए.
उल्लेखनीय है कि गुजरात विश्वविद्यालय ने गत 9 फरवरी, 2023 को उच्च न्यायालय से कहा था कि सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल किसी की ‘बचकानी जिज्ञासा’ को संतुष्ट करने के लिए नहीं किया जा सकता. नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के समय नामांकन के पर्चे में अपनी शैक्षणिक योग्यता का जो ब्यौरा दिया, यदि किसी को संदेह हुआ कि वह ब्योरा गलत था, तो विश्वविद्यालय के मुताबिक उस डिग्री की सच्चाई जानने की इच्छा और मांग ‘बचकानी जिज्ञासा’ है! यह नरेंद्र मोदी नामक एक व्यक्ति, एक सांसद पर गलत जानकारी देने के आरोप या संदेह का मामला है. वे प्रधानमंत्री बन गये, नहीं बनते तो यह जिज्ञासा बचकानी नहीं होती?
सवाल है कि इस मामले में गुजरात और केंद्र सरकार किसी कीमत पर उक्त सूचना को सार्वजनिक होने से रोकने पर आमादा क्यों है? किसी भी आम सांसद या विधायक का मामला होता, क्या तब भी केंद्र सरकार के अधिवक्ता अदालत में उस याचिका के खिलाफ तर्क देने खड़े हो जाते?
संयोग से आरटीआई के तहत वह सूचना अरविंद केजरीवाल ने भी मांगी थी. वह दिल्ली के मुख्यमंत्री भी थे. उनके बारे में भी कोई ऐसी जानकारी मांगता, तो क्या वह ‘बचकानी जिज्ञासा’ हो जाती? और वे जानकारी नहीं देते तो कोर्ट में वह मामला दिल्ली सरकार लड़ती? यदि नहीं तो इस मामले में नरेंद्र मोदी के बचाव में दिल्ली और गुजरात विश्वविद्यालय सहित गुजरात और केंद्र सरकार के वकीलों को पैरवी क्यों करनी चाहिए?
यह तो तथ्य है ही कि विधानसभा चुनाव का पर्चा भरते समय श्री मोदी विवाह का कॉलम खाली छोड़ देते थे. यह भी सही नहीं था. बाद में शोर हुआ तो 2014 में लोकसभा चुनाव में के समय खुद को ‘विवाहित’ बताया, पत्नी का नाम भी लिखा. उसी समय उन्होंने बीए और एमए पास होने का उल्लेख करते हुए एक हलफनामा भी दाखिल किया, जो नोटरी द्वारा जारी किया जाता है. चुनाव कानून के अनुसार नामांकन के पर्चे में कोई गलत सूचना देना या जरूरी जानकारी छिपाना अपराध है. यह सिद्ध होने पर बाद में चुनाव तक रद्द हो सकता है. यदि उनकी यह घोषणा सही है कि इन्होंने बीए और एमए किया है तब तो कोई बात नहीं है. लेकिन अगर यह बात झूठ है, तो चुनाव कानून का उल्लंघन करने के साथ ही झूठा हलफनामा (शपथ पत्र) देना एक और अपराध है. यदि इस तरह का संदेह है तो इसका स्पष्टीकरण क्यों नहीं होना चाहिए? अपने देश में फर्जी पासपोर्ट, फर्जी ड्राइविंग काइसेंस, फर्जी वोटर सहित अनेक तरह का गोरखधंधा होता है, यह कोई रहस्य है? फर्जी डिग्री के दम पर नौकरी हासिल करने वाले पकड़े भी जाते हैं, उनको सजा भी होती है. इसे ‘बचकानी जिज्ञासा’ कह देना बेहद बचकाना तर्क है.