डॉ. अंबेडकर के एक वृहद शोध-अध्ययन ‘फिलॉसफी ऑफ हिंदुइज्म’ के हिंदी अनुवाद ‘हिंदुत्व का दर्शन’ (करीब 200 पेज) का एक छोटा-सा अंश है। अंबेडकर जी का, देश की आजादी के करीब दस साल पूर्व का यह अध्ययन उस वक्त टुकड़ों-टुकड़ों में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था। इनका संकलन-संपादन और समग्र प्रकाशन (अंग्रेजी) संभव हुआ 1980-90 के दशक में, भारत सरकार के कल्याण मंत्री श्री सीताराम केसरी के अधीनस्थ ‘सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय’ की ठोस पहलकदमी से। तब से पिछले दस-ग्यारह साल में ‘प्रभुओं’ के बीच का धर्म विषयक बौद्धिक विमर्श कहां और क्यों अटका-भटका है? यह शायद ‘टाइम और टाइमिंग’ के घेरे से मुक्त होकर निम्नलिखित अंश जैसे और कई अंशों के संकलित-संपादित सारांश प्रस्तुत करने और छापने से ही संभव होगा।

इतिहास का ताना - धर्म का बाना

हिंदू धर्म के अन्वेषण की प्रक्रिया हम आरंभ करते हैं, तो हमारे सामने आरंभिक कठिनाई यह आती है कि हमारे देश में शायद ही कोई हिंदू ऐसी जांच-पड़लात का सामना करने के लिए तैयार है। हिंदू कहाने वाले पढे-लिखे लोग दो तरह के ‘मत’ रखते हैं। या तो वे कहते हैं कि ‘धर्म’ उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं है अथवा वे इस विचार की ओट ले लेते हैं कि सभी धर्म अच्छे हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि ये दोनों ही मत गलत और निराधार हैं। धर्म एक सामाजिक शक्ति है, इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती। हेबर्ड स्पेंसर ने धर्म की अत्यंत सार्थक व्याख्या की है, जिसके अनुसार, ‘किसी जाल की बुनाई में यदि इतिहास को ‘ताना’ माना जाए तो धर्म एक ऐसा ‘बाना’ है, जो उसके प्रत्येक स्थान पर आड़े आता है।’ यह एक सच्चाई है, जो प्रत्येक समाज से संबंधित है। परंतु भारतीय इतिहास के ताने को धर्म न केवल हर स्थान पर बाना बनकर आड़े आता है, बल्कि हिंदु ‘मन’ के लिए वह ताना भी है और बाना भी।

हिंदू-जीवन में धर्म उसके प्रत्येक क्षण को नियमित करता है। वह उसे आदेश देता है कि अपने जीवनकाल में कैसा आचरण करे, तथा उसकी मृत्यु के उपरांत उसके शरीर का क्या किया जाए।

धर्म उसे यह बताता है कि स्त्री के साथ मिलने वाला सुख कब और कैसे प्राप्त करे। जब बच्चा पैदा हो जाए, तो कौन-कौन से धर्मानुष्ठान किए जाने हैं - बच्चे का क्या नाम रखा जाए, उसके सिर के बाल कैसे काटे जाएं, उसको पहला भोजन कैसे कराया जाए। वह जब जवान हो जाए, तो कौन-सा व्यवसाय करे, किस स्त्री के साथ विवाह करे, यह बात भी उसे धर्म बताता है। वह किसके साथ भोजन करे, कौन-सा अन्न खाए, कौन-सी सब्जी विधिवत् है और कौन-सी निषिद्ध, उसकी दिनचर्या कैसी हो, कितनी बार वह भोजन करे और कितनी बार प्रार्थना करे, धर्म इन सबका नियमन करता है। हिंदू का ऐसा कोई कार्य नहीं, जिसका धर्म में अंतर्भाव न हो अथवा जिसके लिए धर्म का आदेश न हो।

यह बहुत विचित्र प्रतीत होता है कि शिक्षित हिंदू इस बात को अधिक महत्व नहीं देते, मानो यह कोई उपेक्षा की बात हो। इसके अलावा, धर्म दैवी शासन की योजना का समर्थन करता है। यह योजना समाज के अनुसरण के लिए एक आदर्श बन जाती है। आदर्श अस्तित्वहीन हो सकता है, इस अर्थ में कि इसकी रचना अभी की जानी है। यद्यपि वह अस्तित्वहीन है, परंतु वास्तविक है क्योंकि, जैसे प्रत्येक आदर्श में कोई कार्य-प्रवण शक्ति निहित होती है, उसी प्रकार इस आदर्श में भी है। जो लोग धर्म के महत्व को नकारते हैं, वे लोग यह बात भूल जाते हैं।

इतना ही नहीं, इस आदर्श के पीछे कितनी विराट शक्ति तथा मान्यता होती है, यह बात भी वे समझ नहीं सकते। शायद ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमें आदर्श और वास्तविक, दोनों में अंतर दिखाई देता है और ऐसा हमेशा ही होता है, चाहे हमारा आदर्श धार्मिक हो अथवा लौकिक। लेकिन दोनों आदर्शों की तुलनात्मक शक्ति नापने की एक और कसौटी हैं वह है, मनुष्य की स्वाभाविक अंतःप्रेरणा को कुचलने की उनकी शक्ति।

आदर्श का संबंध कुछ ऐसी चीजों से होता है, जो दूरवर्ती होती हैं और मनुष्य की स्वाभावकि अंतःप्रेरणा का संबंध उसके अति समीप के वर्तमान से होता है। अब जब हम दोनों आदर्शों को मनुष्य की स्वाभाविक अंतःप्रेरणा पर छोड़ देते हैं, तो दोनों में ही स्पष्ट रूप से भिन्नता नजर आती है। धार्मिक आदर्शों की आवश्यकताओं के सामने मनुष्य की स्वाभाविक अंतःप्रेरणा अपने-आप झुक जाती है, चाहे दोनों आदर्श एक-दूसरे के विरोधी हों। दूसरी ओर, यदि दो आदर्शों में संघर्ष होता है, तब मनुष्य की स्वाभाविक अंतःप्रेरणा लौकिक आदर्श के सामने नहीं झुकती। इसका अर्थ है कि धार्मिक आदर्श का बिना किसी ऐच्छिक लाभ की आंकाक्षा के मानवता पर अधिकार होता है। यही बात शुद्ध लौकिक आदर्श के बारे में नहीं कही जा सकती। उसका प्रभाव उसके भौतिक लाभ प्राप्त करा देने की शक्ति पर निर्भर होता है। मानव बुद्धि पर इन दोनों अदर्शों का जो प्रभाव और अधिकार है, उसमें कितना अंतर है, यह बात इससे स्पष्ट होती है। जब तक उनमें विश्वास है, धार्मिक आदर्श कभी भी अपने कार्य में असफल नहीं होता। धर्म की उपेक्षा करना सजीव संवेदनाओं की उपेक्षा करना है।

फिर, सभी धर्म ‘सत्य’ तथा ‘उत्तम’ हैं, ऐसा विचार करना निश्चित रूप से अनुकरण की दृष्टि से गलत है। हमें यह बात बहुत खेद के साथ कहनी पड़ती है कि यह विचार तुलनात्मक धर्म के अध्ययन से उत्पन्न होता है। परंतु तुलनात्मक धर्म ने मानवता की एक बहुत ही महान सेवा की है। सभी लौकिक धर्मो का - यह कहना कि वे ही केवल मात्र उत्तम धर्म है - यह अधिकार तथा गर्व तुलनात्मक अध्ययन से भंग हो गया है। यद्यपि यह सच है कि तुलनात्मक धर्म के अध्ययन ने अब तक सिर्फ अवैचारिक और मठाधीशों के एकाधिकार के आधार यानी ‘सत्यधर्म’ तथा ‘असत्यधर्म’ में जो अनियमित तथा संदिग्ध भेद बना हुआ था, उसे निरस्त किया है। दूसरी ओर, इसके कारण धर्म के संबंध में झूठी धारणाएं भी बनीं। इसमें सबसे हानिकारक धारणा यह है कि सभी धर्म समान रूप से ‘उत्तम’ हैं और उनमें कोई भेद करने की आवश्यकता नहीं है। इससे बड़ी गलती कोई दूसरी नहीं हो सकती।

धर्म एक व्यवस्था तथा शक्ति है और सभी सामाजिक प्रभावों तथा संस्थाओं के समान वह भी अपने प्रभाव में आबद्ध समाज को लाभ अथवा हानि पहुंचाता है। जैसा कि अब तक स्पष्ट हो चुका है कि “…धर्म मानव इतिहास का एक अत्यंत शक्तिशाली माध्यम है, जिसने राष्ट्रों का निमार्ण तथा विध्वंस किया, साम्राज्यों को एक साथ जोड़ा, तो दूसरी ओर विभाजित भी किया है। उसने सबसे नृशंस प्रथाओं तथा अन्यायी कृत्यों को मान्यता दी, सबसे पराक्रमी कार्य, आत्मत्याग और निष्ठा की भावना को प्रेरित किया है। धर्म के कारण एक ओर क्लेश, विद्रोह तथा रक्तरंजित युद्ध हुआ, तो दूसरी ओर धर्म के कारण राष्ट्रो में स्वतंत्रता, सुख और शांति भी आई। वह एक स्थान पर जुल्मों का साथ देता है, तो दूसरे स्थान पर गुलामी की जंजीरे तोड़ देता है। कभी एक नई देदीप्यमान सभ्यता का निर्माण करता है, तो कभी विज्ञान, कला आदि के विकास का सबसे बड़ा शत्रु बनता है।

धर्म की शक्ति के परिणामों में इतनी विलक्षण विसंगति के बावजूद वह जो रूप धारण करता है तथा जो आदर्श निश्चित करता है, उसे बिना किसी परीक्षण के उत्तम माना जाता है। यह इस पर निर्भर करता है कि किसी धर्म ने दैवी शासन की योजना के रूप में कौन-से सामाजिक आदर्श प्रदान किये हैं। यह एक ऐसा प्रश्न है, जिस पर तुलनात्मक धर्म के विज्ञान ने विचार नहीं किया। वस्तुतः यह एक ऐसा प्रश्न है, जो तुलनात्मक धर्म का जहां अंत होता है, वहीं से आरंभ होता है।

यद्यपि धर्म अनेक हैं, परंतु वे सभी समान रूप से उत्तम हैं, ऐसा कहकर हिंदू लोग इस प्रश्न का उत्तर टालते हैं। परंन्तु वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। हिंदू समाज हिंदुत्व के दर्शन का परीक्षण करने की बात को कितना भी टालने का प्रयास करे, ऐसे परीक्षण से भाग नहीं सकता। उसे इसका सामना करना ही होगा।