नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उस दिन टिकट नहीं गिने गये, लाशें गिनी गयीं. मानो तो रेलवे स्टेशन पर एक नया कुंभ हुआ. कुंभ की तरह यहां भी सरकार ने सबसे पहले लाशें समेटीं, हादसे के सारे चिह्न मिटाये, मृतकों की एक संख्या ऐसे घोषित कर दी मानो वहां नोट गिनने जैसी कोई मशीन लगी थी, जिसने मृतकों की पक्की संख्या तक्षण बता दी ! इधर संख्या बता दी, उधर मौत की कीमत बता दी और फिर अगला कार्यक्रम शुरू ! ऐसा ही तो कुंभ में हुआ था. लाशें समेट कर कुंभ फिर चल निकला था. कितनों ने डुबकी लगायी- राष्ट्रपति ने, उप-राष्ट्रपति ने, प्रधानमंत्री ने भी, पक्ष-विपक्ष के आला लोगों ने भी, समाजसेवियों ने भी, खिलाड़ियों व अभिनेताओं ने भी और पता नहीं किन-किन ने, लेकिन कहीं न पढ़ा न सुना कि किसी ने कहा हो कि कुंभ में डुबकी लगा कर मैंने मृतकों की मुक्ति की याचना की और अपनी आपराधिक चूक की माफी मांगी !
दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भी ऐसा ही हुआ. लाशें समेट कर, मृतकों की एक संख्या घोषित कर, भगदड़ को हादसे का जिम्मेदार बता कर रेलवे ने जल्दी से प्लेटफॉर्म खोल दिये, टिकटों की बिक्री शुरू कर दी है. जो कुछ हुआ उसे उसी तरह मिटा दिया गया जिस तरह बच्चे स्लेट पर अपना लिखा मिटा देते हैं. बेचारे करते भी क्या ! क्या कुछ लोगों के मर जाने से रेलवे बंद कर देते ? कुंभ रोक देते ? इहलोक से परलोक का महात्म कहीं अधिक होता है. व्यवस्था की अपनी एक मशीन है भाई, आप उसे मानवीय बनाने की कोशिश न करें. आखिर उसने मृतकों की कीमत तो चुका दी है न ! आप देख ही तो रहे हैं कि सारी दुनिया को ज्ञान बांटने की मुहिम से थके-हारे प्रधानमंत्री ने अभी दिल्ली पहुंच कर सांस भी नहीं ली थी कि उन्हें मृतकों से प्रति गहरी संवेदना का संदेश जारी करने की मशक्कत करनी पड़ी. जब उनका संदेश आ गया तो फिर रेल मंत्री ने भी अपना संवेदना संदेश जारी किया. ऊपर से हरी झंडी मिली तो एक-एक कर मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों सबकी संवेदना का तंत्र झंकृत हो रहा है, और हम लगातार होते हादसों में मारे गये अपने लोगों की लाशें समेटते-समेटते, अगले हादसे का इंतजार कर रहे हैं. यह नया हिंदुस्तान है !
न न, आप उबल मत पड़िये, न बांहें चढ़ा कर हमसे पूछिये कि क्या इससे पहले की सरकारों के दौर में हादसे नहीं होते थे ? हम मानते हैं कि हादसे पहले भी होते थे, लेकिन हादसों का राज्य प्रायोजित आयोजन नहीं होता था.
दिल्ली में जो हादसा हुआ, क्या वह लोगों की असावधानीवश हुआ ? नहीं, लोगों ने कोई असावधानी नहीं की थी. अगर की थी तो इतनी ही कि सरकारी प्रचार में बह कर वे सब कुंभ जाने को व्यग्र हो उठे थे. ऐसी व्यग्रता अज्ञान, कुशिक्षा आौर अंधविश्वास में से पैदा होती है, जिसकी आंधी उठाने में सत्ता एक दशक से पूरा जोर लगा रही है. हाल ऐसा है कि हवाई जहाजों में धनवान आौर सत्ताधीश उमड़े हुए हैं. धनसंपन्न मध्यम वर्ग भी उचक- उचक कर इसी जमात में शामिल होने का सुख ले रहा है. हवाई कंपनियां मनमाना दाम वसूल कर, इन्हें कुंभ पहुंचा रही हैं. रेलवे ने विशेष गाड़ियां चला रखी हैं जो लाद-लाद कर लोगों को कुंभ पहुंचा रही हैं. बसें, टैक्सियां सब इसी काम में जोत दी गयी हैं. ऐसा कभी देखा था कि लोगों के धार्मिक विश्वास को सत्ता के हवन कुंड में इस तरह होम किया जा रहा हो ?
दिल्ली रेलवे स्टेशन के अधिकारियों से लेकर कुलियों तक को पता था कि भीड़ बेतहाशा बढ़ती चली जा रही है. प्लेटफॉर्म पर खड़े होने की जगह नहीं बची थी. न टिकटों की बिक्री रोकी गयी, न लोगों को प्लेटफॉर्मों पर पहुंचने से रोका गया. वहां कुंभ जाने वाली कई गाड़ियों का जमावड़ा था. इसलिए अफरा- तफरी चरम पर थी. कोई बताये कि यह योजना किसने बनायी थी? सामने ऐसी भीड़ को देखने के बाद भी अधिकारियों ने प्लेटफॉर्म बदलने की घोषणा कर दी. इससे बड़ी जाहिली की कल्पना नहीं की जा सकती है ! सामान्य अवसरों पर भी जब रेलवे अचानक प्लेटफॉर्म बदलने की घोषणा करती है तब भी हम देखते हैं कि कैसी अफरा-तफरी मच जाती है. उस दिन जैसी भीड़ थी, उसमें अचानक प्लेटफॉर्म बदलने की घोषणा आपराधिक कृत्य था. अंतिम समय में प्लेटफॉर्म बदलने की यह वृत्ति बढ़ती जा रही है, जो रेलवे अधिकारियों के खराब आयोजन, अकुशलता तथा संवेदनहीनता का प्रमाण है. रेल अधिकारी कौन हैं ? सरकारी रवैये की प्रतिछाया ! किसी तरह नये प्लेटफॉर्म पर पहुंच कर, गाड़ी में अपनी जगह लेने की बदहवास होड़ में वह सब हुआ, जिसका स्यापा अब किया जा रहा है. और हद तो यह कि हादसे की जांच के लिए रेलवे के ही अधिकारियों की समिति बना दी गयी ! अपने अपराध की जांच भी अपराधी स्वयं करें तथा अपनी सजा भी खुद ही तय करें, यह तो ऐसी कीमिया न है, जिससे महात्मा गांधी भी हतप्रभ रह जाएंगे.
लेकिन यहां एक दूसरा सवाल भी है- लोगों को भीड़ बनाने की इस वृत्ति के पीछे कौन है ? हमारे लोग अधिकांशतः अशिक्षित, कुशिक्षित तथा अंधविश्वासी हैं. इस सरकार ने अपना सारा छल-दल-बल लगा कर, सारे देश में इसका जश्न मनाने का अभियान चला रखा है. यह कुंभ उसी अभियान का हिस्सा है. हमारी परंपरा में जिस कुंभ की महिमा ऐसी रही है कि उसकी सबसे बड़ी अध्यात्मिक शक्ति उसकी स्वस्फूर्ति में रही है, न कि राज्य की धोखाधड़ी में. अनगिनत सालों से न कोई किसी को बुला या फुसला कर कुंभ में लाता था, न अकूत धन उड़ेल कर उनकी डुबकी की व्यवस्था होती थी. यह अप्रायोजित आयोजन मनरूपूर्वक होता था. लोग अपनी-अपनी श्रद्धा, सुविधा व हैसियत के मुताबिक कुंभ या ऐसे आयोजनों में जाते थे. अब ऐसी हर सांस्कृतिक परंपरा का राजनीति इस्तेमाल किया जा रहा है. अंदरखाने की एक आवाज यह भी कहती है कि यह मोदी व योगी के बीच की वर्चस्व की लड़ाई का मुद्दा बन गया, जिसमें योगी ने खुद के लिए वैसी राजनीतिक कमाई कर ली, जैसी प्रधानमंत्री नहीं कर सके. लेकिन यह तो भाजपा का आंतरिक मामला है.
सरकार कुंभ का आयोजन क्यों करे भला ? भारतीय संविधान के मुताबिक चलने वाली किसी सरकार का यह काम हो सकता है क्या ? क्यों यह बात उछाली गयी कि जो कुंभ नहीं जायेगा, उसकी देशभक्ति संदेह के घेरे में होगी ? किस परंपरा के मुताबिक इसे महाकुंभ कहा गया ? ऐसा कोई शब्द कुंभ की परंपरा में तो है नहीं ! खबर यह भी है कि राज्यों को कोटा दिया गया कि कितने भक्त उसे कुंभ में भेजने हैं. धार्मिक उन्माद खड़ा कर जब आप करोड़ों की भीड़ जुटाते हैं, तब आप दूसरा कुछ नहीं करते, हादसों का आयोजन करते हैं. अगर आपका दावा सही मान लें हम कि 50 करोड़ लोगों ने कुंभ में डुबकी लगायी तो कोई हमें बताये कि इतनी बड़ी उन्मादी भीड़ को कौन-सी व्यवस्था संभाल सकती है ? भीड़ की एक परिभाषा यह भी तो है न कि उसके पास सर होता है, समझ नहीं ! सत्ता के लिए यह सिर ही अंतिम कसौटी है, समझ से उसका वास्ता रहा ही कब है ? इसलिए आदमी नहीं, उसे हर सिर एक वोट दिखाई देता है, जिसे उन्मादित कर अपने खाते तक पहुंचाना उसका चरम धार्मिक कर्तव्य होता है.
कोई हिसाब लगा कर बताये कि कुंभ आने में, कुंभ से जाने में आौर कुंभ-स्थल पर अब तक कितने हादसे हुए हैं और कितनी जानें गयी हैं ? ऐसा हिसाब लगाएंगे आप तो हमेशा आपको दो आंकड़े मिलेंगे - सरकारी व सामाजिक ! दोनों के बीच इतनी गहरी विषमता होगी कि आप हैरान रह जायेंगे. जब कभी ऐसा हो तो मान लेना चाहिए कि लाशों के आंकड़े नहीं, मनोवृत्ति को आंकना जरूरी है. वह अगर हम पहचान सके तो आगे लाशें गिनने की नौबत नहीं आएगी.