हाल में छत्तीसगढ़ के उच्च न्यायालय ने महिला उत्पीड़न की एक दर्दनाक घटना के संबंध में जो फैसला दिया है, वह बेहद शर्मनाक है. घटना दिसंबर 2017 की है. बिलासपुर शहर की एक महिला का मुकदमा वहां के लोअर कोर्ट में आता है. मरने से पहले महिला ने बयान दिया था कि पति के द्वारा अप्राकृतिक शारीरिक संबंध बनाने के कारण वह बीमार हो गयी हैं . उसने इसके लिए अपनी असहमति जताई थी लेकिन उसके पति ने उस पर ध्यान नहीं दिया और उसके साथ जबरदस्ती संबंध बनाया, जिसके कारण उसे अंतरिक चोटें पहुंची है. उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. आस्पताल के डाक्टरों ने भी इस बात की पुष्टि की. महिला उस पीडा से उबर नहीं पाई और उसकी मृत्यु हो गयी. कोर्ट ने उसके बयान तथा डाक्टरों की पुष्टि के आधार पर पति को दस वर्ष की सजा सुनायी.
पति भला लोअर कोर्ट के इस फैसले को कैसे स्वीकार कर सकता था. उसके सामने हाइकोर्ट में अपील करने और न्याय पाने का रास्ता खुला हुआ था. उस समय हाइकोर्ट में पेश इस मुकदमें का फैसला इस वर्ष 12 फरवरी को आया. मुख्य न्यायाधीश ने फैसला देने में पर्याप्त समय लिया. कई बार इस पर सुनवाई हुई होगी. पुरुष वर्चस्व की बात थी. फैसला देने वाले भी एकल बेंच के एक ही पुरुष जज थे. इतने सालों की सुनवाई के बाद उन्होंने फैसला दिया कि पति निर्दोष है और उसे बेल दे देना चाहिए. यदि पत्नी 15 वर्ष से कम आयु की होती, तो पति के द्वारा इस तरह का यौनाचार अपराध होता. लेकिन इस केस में पत्नी 15 वर्ष से अधिक उम्र की थी. दूसरी बात यह है कि विवाह के बाद पति को शारीरिक संबंध बनाने के लिए पत्नी की सहमति की जरूरत नहीं है. भारतीय कानून में इस तरह की कोई बात नहीं लिखी हुई है. पत्नी पहले से ही किसी रोग से पीडित थी. इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि पति के अप्राकृतिक यौनाचार से उसकी मृत्यु हुई है.
यह फैसला चर्चा में आ गया. महिलाओं ने इसका विरोध भी किया. यह सारा प्रसंग हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि 21 वीं शताब्दी में भी महिलाओं की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है. जब कि महिलाएं पढ़ लिख गई हैं. नौकरियां कर रही है और आत्म निर्भर हो रही हैं. फिर भी अधिकारों के उपयोग के मामले में वह अभी भी पुरुषों से पीछे ही है.
आजादी के पहले का भारत जब भारत पर अंग्रेजों का राज्य था, उस समय की महिलाओं की स्थिति यहां पर बरबस ही याद आ जाती है. उसके दो उदाहरण मैं यहां देना चाहती हूं. शासन तो अंग्रेजों का था लेकिन भारतीय समाज हिन्दू धर्म से संचालित होत था. हिन्दू धर्म में तो हमेशा महिला को पुरुष आश्रिता ही बताया है. हिन्दू मान्यताओ का असर अंग्रेजी शासन में भी परिलक्षित होता था. जैसे लड़कियों की शादी 10 वर्ष की उम्र से पहले कर दी जाती थी. उन्नीसवीं सदी का पूर्वाद्ध था. समाज में महिलाओं की हित सोचने वाले लोग चाहते थे कि अंग्रेज हुकूमत बालविवाह के रोक के लिए कानून बनाये, लेकिन हिन्दू समाज इसका विरोध करता था. उसका मानना था कि भारतीय समाज पर यह पाश्चात्य सभ्यता का आक्रमण है. बालगंगाधर तिलक जैसे नेता भी चाहते थे कि बालविवाह जैसी कुरीति कानून बनाने से नही जायगी बल्कि शिक्षा के प्रचार से लोगों में जागृति आयगी. लेकिन 1890 के अंतिम दिनों में महाराष्ट्र में ग्यारह साल की फूलमनी की मृत्यु पति के यौन उत्पीडन से हो जाती है. उसका पति उससे 29 वर्ष बड़ा था. इसके बाद बालविवाह के विरुद्ध कानून बनाने की आवाज तेज हो जाती है. फिर भी हिन्दू मठाधीश लड़की की शादी रजस्वला होने के पहले ही करा देने के पक्ष में थे. वे पति के द्वारा जिस गर्भादान की बात कर रहे थे वह लड़की के रजस्वला होने के पहले संभव नहीं था. इस तरह छोटी लड़कियां वयस्क पति की कामेच्छा की बलि चढ़ती थी. सारे विरोध के बावजूद 1891 में बालविवाह विरोधी कानून बन गया.
दूसरी घटना भी उन्नीसवी शताब्दी के पूर्वाद्ध की ही है जब बालविवाह के कारण उत्पन्न बालविधवाओं की समस्या पर समाज में चिंतन शुरू हो चुका था. उसी समय बंबई हाई कोर्ट में एक केस आया. केस दर्ज हुआ दादाजी नाम के व्यक्ति के द्वारा अपनी पत्नी बाइस वर्षीया रुक्माबाई के विरुद्ध . रुकमाबाई जाति की बढ़ई थी. उसने अपने पति के वैवाहिक अधिकार को अस्वीकार कर दिया था. उसकी शादी बाल्यावस्था में हुई थी. उसके बाद ग्यारह साल तक वह अपने पति से अलग रही. वह जब बाइस वर्ष की हो गई तो पति पत्नी के रूप में उस पर अधिकार जताने लगा. रुकमा बाई ने बहस किया कि शादी के बाद ग्यारह वर्ष तक उनके बीच कोई संबंध नहीं रहा. इसलिए इस शादी का कोई मतलब नहीं है. वह इस शादी को स्वीकार नहीं करती है. चार वर्ष तक यह केस चलता रहा. अंत में रुक्मा बाई को हार स्वीकरना पडा . उसे डराया गया कि वह आपसी समझौते से इस संबंध को स्वीकार कर ले, अन्यथा उसे जेल जाना पड़ेगा. इस घटना से यही स्पष्ट होता है कि रुक्माबाई, एक औरत को पितृसत्ता के आगे झुकना पडा और उसके फैसले को स्वीकार करना पडा. इस तरह पुरुष प्रधान समाज की जीत हुई.
उक्त दो घटनाएं यहीं बताती हैं कि समाज में पुरुष ताकत हमेशा प्रबल रही है. चाहे वह उन्नीसवीं शताब्दी हो या इक्कीसवीं शताब्दी. इक्कीसवीं शताब्दी में समाज में बहुत परिवर्तन हुए. औरत आत्मनिर्भर हुई .लेकिन उसकी पुरुष निर्भरता अभी भी बनी हुई है. यह औरत की फितरत रही है कि वह कितनी भी उन्नत्ति कर जाय लेकिन किसी चीज पर उसका कोई अधिकार नहीं होता है. माता पिता का घर कभी अपना नही हुआ जिस घर में वह पैदा होती है. शादी के बाद उसके शरीर पर उसका अधिकार नहीं रह जाता. उस पर पति का अधिकार हो जाता है. पति जब चाहे पत्नी की सहमति के बिना भी उसका उपभोग कर सकता है. उसके अपने पेट से जाया बच्चे भी पति के नाम से ही जाने जाते हैं.
दरअसल, भारत के पितृ सत्तात्मक समाज मे हर युग में महिलाओं को पुरुष के आधीन माना गया है. यद्यपि आजादी के बाद महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकारों की बात संविधान में कही गयी है. लेकिन परंपरागत रूप से इस समाज में महिला को पुरुष की अनुगामिनी बनाकर रखने की जो प्रवृत्ति थी, वह आज भी सभी क्षेत्रों में दिखती है. देश की शासन व्यवस्था हो या न्याय व्यवस्था या अन्य क्षेत्रों में उसका प्रतिनिधित्व नाम मात्र का है, जबकि महिलाओं की आबादी लगभग पुरुषों के बराबर ही है. ऐसी स्थिति में महिलाएं अपने साथ होने वाले अन्याय के विरुद्ध लड़ने और न्याय पाने की हिम्मत कैसे कर सकती हैं. यहां स्पष्ट कर दें कि हमारे संसद में केवल 14.7 प्रतिशत महिला प्रतिनिधि हैं, तो उच्च न्यायालयों में 13.4 प्रतिशत महिला जज हैं, तो उच्चतम न्यायालय में 9.3 प्रतिशत महिला जज हैं.