बाँदा / बुंदेलखंड - आठ नवंबर 2016 की रात बारह बजे से देश के प्रधान सेवक नरेन्द्र मोदी के 500 और 1000 के पुराने नोटों पर लगी रोक के बाद बुंदेलखंड में स्थिति बिगड़ गई है. उधर तीन साल के सूखे के बाद अबकी बार जब बारिश ने साथ दिया तो किसान के चेहरे में रौनक लौट आई थी. चित्रकूट मंडल समेत यूपी वाले सात जिलों में कर्ज के बोझ तले दबा किसान आत्महत्या की सिलसिलेवार घटना के बाद आशान्वित हुआ था कि अबकी मर्तबा किसान क्रेडिट कार्ड से लिया गया कुछ कर्जा चुका सकेंगे. लेकिन जैसे ही उनकी खेत की जुताई- बाई का समय हुआ तो देश के डिजिटल पीएम ने शहर और गाँव से जुडी एक बड़ी आबादी को कैसलेस करने का फरमान सुना दिया ! नोटबंदी में जहाँ बड़े शहरों में आर्थिक किल्लत बैंक की लम्बी लाइनों के रूप में सामने आई वही बुंदेलखंड में सीमान्त-लघु किसान और दिहाड़ी मजदूर के सामने मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. यह सब तब हुआ जब ग्रामीण जनता के घरों से सूखे के मौसम में पलायन किये किसान परदेश में मजूरी के लिए गए थे. बतलाते चले बुंदेलखंड का लीडबैंक इलाहाबाद बैंक है जिसके मातहत ही यूपी ग्रामीण बैंक संचालित होते है, प्रदेश में रहने वाले किसान और मजदूर अपने पारिवारिक ख्रचो के लिए इलाहाबाद बैंक की ग्रामीण शाखा में ही रुपया लेन-देन करते है पर जैसे ही ये नोटबंदी हुई उनकी मौसमी तिजोरी में तालाबंदी हो गई ! बानगी के लिए जिला बाँदा की एसबीआई शाखा ने बीते 50 दिनों में आज भी खबर लिखे जाने तक पर्याप्त मात्रा में गाँव-कस्बो में संचालित बैंको में कैस नहीं भेजा है जिसके चलते किसान आज भी बैंक के सामने लम्बी कतार में देखा जा सकता है. इस नोटबंदी में जहाँ 12 मौतें बुन्देलखंड से हुई है वही बैंक में आरबीआई के फरमान बौने साबित हुए है. पिछले एक दशक में बुंदेलखंड से पलायन किये किसान - बुंदेलखंड: उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में विभाजित बुंदेलखंड इलाका पिछले कई वर्षो से प्राकृति आपदाओं का दंश झेल रहा है. भुखमरी और सूखे की त्रासदी से पिछले एक दशक में तक 67 लाख से अधिक किसान ‘बुन्देली वीरों की धरती’ से पलायन कर चुके हैं.अब यूपी विधान सभा चुनाव की बयार है बावजूद इसके किसान नेता के लिए वोट बैंक ही है.अतिवर्षा ने किसान को इस वर्ष सूखे के बाद एक ही साल में तोडा है उसकी खरीफ की खेती चौपट है.स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता एवं किसान नेताओं की मानें तो इस इलाके के किसानों की दुर्दशा पर दो साल पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल की आंतरिक समिति ने प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) को एक चौंकाने वाली रिपोर्ट पेश की थी.
लेकिन यह रिपोर्ट अब भी पीएमओ में धूल फांक रही है. इस रिपोर्ट का हवाला देकर मऊरानीपुर के भारतीय किसान यूनियन (भानु गुट) किसान नेता शिवनारायण सिंह परिहार बताते है कि प्रवास सोसाइटी ने आंतरिक समिति की रिपोर्ट पर अध्ययन करके जो आंकड़े जारी किये है उनके मुताबिक बुंदेलखंड में पलायन सुरसा की तरह विकराल है ! वे कहते है कि उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड के जिलों में बांदा से सात लाख 37 हजार 920, चित्रकूट से तीन लाख 44 हजार 801, महोबा से दो लाख 97 हजार 547, हमीरपुर से चार लाख 17 हजार 489, उरई (जालौन) से पांच लाख 38 हजार 147, झांसी से पांच लाख 58 हजार 377 व ललितपुर से तीन लाख 81 हजार 316 और मध्य प्रदेश के हिस्से वाले जनपदों में टीकमगढ़ से पांच लाख 89 हजार 371, छतरपुर से सात लाख 66 हजार 809, सागर से आठ लाख 49 हजार 148, दतिया से दो लाख 901, पन्ना से दो लाख 56 हजार 270 और दतिया से दो लाख 70 हजार 477 किसान और कामगार आर्थिक तंगी की वजह से महानगरों की ओर पलायन कर चुके हैं.मार्च 2016 से जून 2016 के मध्य किसान पलायन का आंकड़ा गर जोड़ा जावे तो साढ़े 5 लाख किसान पलायन किया है रोजगार के लिए दिल्ली,मुंबई और सूरत के बड़े शहरों में.इस दफा तो दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन में बकायदा बुन्देली पलायन करने वाले लोग लोगों से भोजन-खाने का समान और कपड़े मांगते नजर आये जो तस्वीर सोशल मीडिया में वायरल हुई है. नोटबंदी में वापस लौटे बुन्देली किसान और मजदूर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 50 दिनी आर्थिक मार में देश की जनता ने भले ही कैसलेस की फांकाकसी कम बर्दास्त की ही पर बुंदेलखंड से बड़े शहरों में पलायन किये किसान,मजदूर तबके के ऊपर गाज गिरी है. बाँदा और महोबा जिलों में स्थलीय पड़ताल करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता आशीष सागर की माने तो महोबा जिले में रोजगार का साधन पत्थर मण्डी कबरई,डहर्रा,गंज और गौरहारी में पिछले तीन सप्ताह से कैस की किल्लत होने से खदानों में काम करने वाले मजदूर को नकद भुगतान नहीं हो सका है वही खदान से माल भाड़ा ढोने वाले ट्रक मालिक - ट्रांसपोटर सकते में है. महोबा की पत्थर खदान से करीब चार हजार दिहाड़ी किसान मजदूर का गुजारा चलता है जिनकी खेती इन्ही पर्यावरण विरोधी रोजगार से बंजर हुए है . यही हाल बाँदा के आस-पास क्षेत्र का है. सदर तहसील बाँदा और अतर्रा में बाहर पलायन किये किसान घर वापस लौट आये है. वे अब विधान सभा चुनाव में मतदान के बाद ही वापस जायेंगे.
केस एक - सिमरिया (मिरदाहा ) ग्राम पंचायत के रहवासी विजय कोरी ऐसे ही भूमिहीन किसान है. मौके पर जब आज उन्हें कड़क सर्दी में परिवार सहित खलिहान में धान उसाते देखा तो पांव बरबस ठिठक गए . विजय से जब नोट बंदी की बात पूछी तो उन्होंने कहा कि आपके सवाल से हमें क्या फायदा होना है ? उनका असल दर्द बटाईदार किसान के साथ हो रहे अमानवीय शोषण को लेकर उबल पड़ा. वे कहते है कि खेत में दिन रात काम हम करते है पर हमारा मालिक हमसे आधा गाला हकदारी से ले जाता है जबकि सूखा राहत में मिलने वाला मुआवजा का एक रुपया भी हमें नहीं मिलता है. वर्ष भर हर तरह का खेतिहर जुआ हम बटाईदार किसान ही झेलते है ऊपर से ये नोटबंदी मारे है ! विजय के परिवार में 9 आदमी है जिनमे चार बेटे,दो बेटी है. बड़े बेटे विश्वनाथ का ब्याह हो गया है पर परिवार अभी पिता के साए में है. विश्वनाथ, विजय और श्रवण कुमार बीते चार सप्ताह पहले सूरत (गुजरात ) से घर आये है. फैक्ट्री मालिक ने अभी उनका भुगतान नहीं किया है कहे से नोटबंदी में उसके पास भी नकदी रुपया नहीं है देने को. इस धन की उबासी को दूर करने विजय बेटे के साथ गाँव लौट आये है ताकि घरैतिन के साथ बटाई में ली गई चौदह बीघा जमीन में लगा धान उस लिया जावे. एक बीघा में करीब 1500 रुपया कुल लागत आती है,शारीरिक श्रम अलग से है बावजूद इसके खेत का मालिक पूरा आधा हिस्सा बाँट लेता है. विजय ने कहा कि पिछले दो माह में जैसे-तैसे घर चला रहा हूँ.
केस दो - सिमरिया (मिरदाहा) के ही लघु किसान कामता प्रसाद भी अधिया में खेती करते है. नोटबंदी से पहले हर साल की तरह दिल्ली के भजनपूरा इलाके में बेलदारी करते थे. वे कहते है कि दिल्ली में तो अब बिना आधार कार्ड के हम बुन्देली लोगों को मजूरी भी नहीं मिलती है. अपने ही देश में ये सख्ती बेगानी महफ़िल सी लगती है. इनके पास स्वयं की दो बीघा खेती है. बटाई में 8 बीघा लिए है जिसमें से 6 बीघा में धान बोया है शेष दो बीघा चौमासे (बरसात ) में छोड़ रखी थी गेहूं बो दिया है. कामता के परिवार में चार बेटियां और दो बेटे है. कामता प्रसाद का बड़ा बेटा राहुल भी पिता के साथ दिल्ली में बेलदारी कर रहा है. इन्हे एमपी के चंदला के ठेकेदार भगवान दास ले गए थे,मजदूरी अभी नहीं मिली है डेढ़ माह से. इन्हे भरोसा है बकाया रुपया हलात सही होते ही मिल जायेगा. हर साल हजारों किसान गर्मी में ठेकेदार के मार्फ़त ही बुंदेलखंड से पलायन करता है तयशुदा शहरों में जहाँ इनकी मजदूरी में ठेकेदार का भी अपना कमीशन जुड़ा रहता है यही इन्हे बड़ी फैक्ट्री प्लांट में भर्ती करवाते है. यही मजदूरों के जमानत दार भी है.
केस तीन - विधान सभा बाँदा के खुरंहड कस्बे में संचालित पूजा धान मिल के बाहर कुछ मजदूर आग ताप रहे थे. उनसे जब रूककर बात की तो पता चला सभी आस-पास के ही रहवासी है. समूह में बैठे मजदूरों में लखन ( इटरा उसरी का पुरवा ),महेश प्रसाद वर्मा (छिबांव ),चुन्नू वर्मा -इटरा,सुरेन्द्र वर्मा -इटरा,राजेन्द्र पाल -खुरहंड,कुलदीप,मदन पाल आदि ने बतलाया कि ये भूमिहीन मजदूर है, धान मिल में प्रति बोरा (सत्तर किलो ) ढुलाई मात्र 11 रुपया मिलता है. दिन भर में तीन सौ रूपये कमा लेते है लेकिन प्रधानमंत्री की पेटीएम जुगाली ने हमारी कमर तोड़ दी है. गर्मी में बाँदा में काम न मिलने पर परदेश चले जाते है. मजदूरों ने बेबाकी से कहा कि वे बहनजी के समर्थक है और मायावती को वोट देंगे. कुछ ऐसा ही सूरते हाल नरैनी के पडुई निवासी रामचरण कुशवाहा का है वो राजस्थान के भरतपुर में टाइल्स लगाने का काम करता था नोटबंदी में आजकल बाँदा शहर में मजदूरी कर रहा है. इनके साथ काम कर रहे बच्ची राजपूत दिल्ली के फरीदाबाद में कारीगरी करते थे अभी घर लौट आये है. यही घटनाक्रम गिरवा कस्बे से लगे ग्राम पंचायत हडाहा कबौली और बिलरह्का के है. यहाँ से करीब सौ मजदूर दिल्ली के रियल स्टेट व हरियाणा के ईट भट्टो से रजुआ,कल्लू अपने समूह सहित लौट आये है !