सुकमा में उस दिन ठीक ठीक क्या हुआ, मुझे नहीं मालूम. पर लगता है, सरकार भी पूरा सच नहीं बता रही. ‘सुकमा’ जैसे हादसों पर राजनीति नहीं होनी चाहिए’, ‘जवानों की शहादत बेकार नहीं जायेगी’, ‘यह (सुकमा) उनकी (माओवादियों) की हताशा-बौखलाहट का प्रमाण है’, ‘हम जल्द ही उनका सफाया कर देंगे.’ ऐसे हर हादसे के बाद इसी तरह के बयान (सरकार कोई हो) सुन- पढ़ कर अब उबन होने लगी है. आखिर क्यों उनके मुकाबले बेहतर और आधुनिक हथियारों से लैस हमारे प्रशिक्षित जवान इतनी आसानी से उनके जाल में फंस जाते हैं, उनके शिकार हो जाते हैं? कहीं तो तैयारी और रणनीति में कोई चूक या खोट है.

सुरक्षा बलों के जवानों की क्षमता या निष्ठा पर संदेह करने का सवाल नहीं है, पर यदि कोई खामी रह गयी, गफलत हो गयी, तो उसको स्वीकार करना चाहिए. तभी ऐसी दुखद और शर्मनाक घटना को पुनः घटित होने से रोका जा सकता है. माओवादी हमारे 90 जवानों की टुकड़ी पर घेर कर हमला करने की योजना को लगभग सफलतापूर्वक अंजाम दे सके, इससे तो यही पता चलता है कि वे हमसे चार कदम आगे हैं. हमें उनके, उनकी गतिविधियों के बारे में उतनी जानकारी नहीं मिल पाती, जितनी उनको हमारी मिल जाती है. 25 जवानों की जान चली गयी और हमारे अधिकारी (सीआरपीएफ के) बता रहे हैं कि हमारे इतने जवान तो बच गये! यह भी कि हमने सडक निर्माण में लगे चालीस कर्मचारियों की रक्षा की. क्या ऐसा लगता है कि माओवादी उन कर्मचारियों की हत्या करना चाहते थे और हमारे जवानों ने उन्हें बचा लिया?

संभव है कि वे भी मासूम ग्रामीणों का ढाल की तरह इस्तेमाल करते हों. लेकिन क्या यह भी सच है कि उन इलाकों में माओवादियों का समर्थन आधार एकदम नहीं है? जानकार बताते हैं कि देश के दस राज्य और दो सौ जिले आज माओवाद से ग्रस्त या त्रस्त हैं. तो क्या मान लिया जाये कि विशुद्ध अपराधियों का एक गिरोह (जैसा इन मओवादिओं के बारे में कहा जा रहा है) सिर्फ हथियार के दम पर इतने बड़े इलाके में इतने प्रभावी हो गये कि वे विकास के मार्ग की ‘सबसे बड़ी’ बाधा बन गये? मैं भी उन्हें क्रांतिकारी मानने को तैयार नहीं हूँ, पर आम अपराधी भी नहीं. इतना मानता हूँ कि कथित क्रांति और शोषणमुक्त व्यवस्था स्थापित के जूनून में वे एक विफल सिद्ध हो चुकी विचारधारा से चिपके हुए हैं. साधन और साध्य की शुद्धता के सिद्धांत को तो नहीं ही मानते, जैसे अन्य संगठन भी नहीं मानते. उनके लिए चूंकि लक्ष्य सही है, पवित्र है, इसलिए जैसे भी हो उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कुछ भी करने को गलत नहीं मानते. लेकिन इस शार्टकट के चक्कर में वे लगातार नीचे गिर रहे हैं. वे स्थानीय अपराधियों को संगठन में शामिल कर लूटपाट करने की छूट देते हैं. छोटे बच्चों के हाथ में बंदूक थमा रहे हैं. यहाँ तक कि अब ग्रामीण युवतियों का यौन शोषण करने के भी मामले सामने आने लगे हैं.

कुछ लोग माओवादियों को नसीहत दे रहे हैं कि आपके ऐसे कारनामे की सजा उन गरीबों को ही मिलेगी, आप जिनके हितैषी होने का दावा करते हैं, कि अब पुलिस का कहर उन पर टूटेगा. मगर क्या वे (माओवादी) इतने मासूम हैं कि इतनी सी बात नहीं समझते! मुझे तो लगता है, वे चाहते हैं कि पुलिसकर्मी और सुरक्षा बलों के जवान खीझ और गुस्से में बेगुनाह ग्रामीणों पर जुल्म करें, ताकि वे उन्हें बता सकें कि यह व्यवस्था-तंत्र उनके प्रति कितना बेरहम है. उन्हें ग्रामीणों-आदिवासियों की परवाह होती तो क्या वे ऐसी वारदात को अंजाम देकर अपने सुरक्षित ठिकानों में क्यों छुप जाते? जिन इलाकों में आज माओवादी सक्रिय और प्रभावी हैं, वह आदिवासी बहुल है. पर उन्हीं इलाकों में जबरन जमीन अधिग्रहण और विस्थापन के खिलाफ आदिवासी लगातार

संघर्ष कर रहे हैं, जो अमूमन शांतिपूर्ण ही हैं. अनेक सफल भी हुए हैं. विस्थापन का सवाल उठाना तो माओवादियों की लाचारी और रणनीति है, ताकि आदिवासियों को जोड़ सकें. वे तो इस व्यवस्था को ही पलटना चाहते हैं, पर आशरी कि यह एहसास भी नहीं है कि आज की तरीख में भारत जैसे विशाल और मजबूत देश में इस तरह तख्तापलट एक दिवास्वप्न ही साबित होनेवाला है..

माओवाद दुनिया की हर मर्ज की दवा है और माओवादियों की सत्ता आने पर समता और शोषण मुक्त समाज-व्यवस्था कायम हो जायेगी, यह भ्रम अब शायद ही किसी को है. चीन की हालत सामने है, जो पूंजीवाद के हर तरीके अपना रहा है, जहाँ अरबपतियों की तादाद बढ़ती जा रही है. आम आदमी सुख-भोग को ही जीवन का लक्ष्य मान रहा है. उत्तर कोरिया में कम्युनिज्म के नाम पर एक क्रूर, लगभग पागल तानाशाह का अंदाज दुनिया देख ही रही है. फिर भी साम्यवाद और हथियारी क्रांति का आकर्षण और नशा कुछ लोगों में बचा हुआ है. और पिछड़े-गरीब मुल्कों में फ़ैली गरीबी, गैरबराबरी और शोषण ने भी इस आकर्षण को बरकरार रखा है. भारत भी ऐसे देशों में शामिल है, जहां तमाम दावों के बावजूद एक बड़ी आबादी ‘विकास’ के लाभ से, हर तरह की सुख सुविधा से वंचित है और आर्थिक असमानता की खाई कम होने के बजाय बढ़ रही है.

ऐसे हथियारबंद विद्रोहियों को उनके अंदाज में जवाब जरूर दिया जाना चाहिए, मगर साथ ही उन स्थितियों को बदलने का सतत और गंभीर प्रयास भी करना जरूरी है, जिनमें भूख है, दरिद्रता है, भेदभाव है, निष्ठुर और भ्रष्ट शासन तंत्र है, जो आम आदमी, खास कर हाशिये पर पड़े लोगों (मैजूदा सन्दर्भ में आदिवासियों) के प्रति संवेदनहीन है. थाना, प्रखंड, बैंक आदि में उन्हें कोई ‘अपना’ नहीं दिखता. ऐसे में यदि माओवादी उन्हें इस व्यवस्था को उनके भक्षक के रूप में दिखाते और न्याय पाने के लिए बंदूक उठा लेने को उकसाते हैं, तो हमें क्या करना चाहिए? ऐसे सभी ‘बहकाये’ लोगों को दुश्मन मान लेना चाहिए? महज गोली के दम पर इस समस्या ख़त्म हो जायेगी? मुझे तो संदेह है.

’70 सालों में कुछ नहीं हुआ’ जैसी बातें भी कब तक करेंगे? छत्तीसगढ़ में तो भाजपा 15 वर्षों से सत्ता में है. इतना समय कम होता है? जो भी हो, ‘सुकमा’ जैसे हादसों की निरंतरता का एक खतरा और है कि अब संविधान. कानून और अदालत को दरकिनार कर मानवाधिकार को ही स्थगित कर देने की मांग उठने लगी है! सरकार और प्रशासन की विफलता पर सवाल करने के बजाय उसे और निरंकुश होने का मौका देकर भी कोई स्थाई समाधान हो जायेगा, यह सोचना दिवास्वप्न ही है. यह आत्मघाती भी हो सकता है. लोकतंत्र के विरुद्ध तो है ही.