सभ्य समाज को आदिवासियों के ‘जनी शिकार’ की परंपरा से भारी असंतोष और वितृष्णा है. उन्हें लगता है कि परंपरा के नाम पर निरीह पशुओ-जंगली जानवरों की हत्या ‘असभ्यता’और ‘बर्बरता’ की निशानी है. लेकिन लगता है कि उन्हें मनुष्य द्वारा मनुष्यों के आखेट पर कोई खास असंतोष नहीं. पिछले कुछ दिनों से नक्सल विरोधी अभियान के तहत बड़ी संख्या में युवक और युवतियों की हत्या हो रही है. इसे ‘मुठभेड़’ कहा जाता है. गुप्त सूचना मिलती है. फिर सुरक्षा बल, पुलिस और नक्सल विरोधी अभियान के लिए गठित विशेष प्रशिक्षित दस्ते मोर्चाबंदी और घेराबंदी करते हैं और व्यवस्था के लिए खतरा बन चुके नक्सलियों-माओवादियों को मार गिराया जाता है. मारे गये माओवादियों के साथ जब्त हथियारों की तस्वीरें जारी की जाती है. आला अधिकारी विस्तार से जानकारी देते हैं कि कैसे उन्हें खुफिया सूत्रों से खबर प्राप्त हुई, कैसे उन्होंने मार्च किया, घेराबंदी की और कैसे ‘उन्हें’ मार गिराया. यह सब कार्रवई कुल मिला कर जानवरों के शिकार के लिए जंगल में ‘हांका’ होने जैसा ही लगता है.

खैर, हम जनी शिकार की बात कर रहे थे. आदिवासी समाज में ‘जनी शिकार’ की परंपरा है. इसमें आदिवासी समाज की महिलाएं पुरुष वेश धारण करती हैं और जंगल-झाड़ में शिकार करती हैं. अब जंगल तो रहे नहीं, जानवर भी बहुत ज्यादा नहीं रह गये है. फिर भी परंपरा के तहत वे शिकार में निकलती हैं. किंवदंती है कि रोहतास गढ पर जब मुगल सेना ने आक्रमण किया तो आदिवासी महिलाओं ने भी उनका मुकाबला- रानी पद्मावती की तरह जौहर नहीं- किया़. कई वर्षों तक यह संघर्ष चला और अंततोगत्वा मुगलों की जीत और उस क्षेत्र से आदिवासियों का पलायन हो गया.

तो, आदिवासी समाज उसी संघर्ष की स्मृति में हर बारह वर्ष में एक बार ‘जनी शिकार’ के लिए निकलता है. एक सप्ताह तक चलने वाले इस त्योहार में महिलाएं पुरुष वेश और अस्त्र शस्त्र धारण करती हैं. पिहले वर्ष झारखंड में जनी शिकार हुआ था और इसकी बड़ी आलोचना हुई थी. गैर आदिवासी समाज को आदिवासियों की इस परंपरा से भारी शिकायत है. इसके खिलाफ प्रशासन कानूनी कार्रवाई करने की धमकी देता है. निरीह पशुओं की हत्या पर आंसु बहाये जाते हैं.

अजीब विडंबना यह है कि वही ‘सभ्य’ भारतीय समाज मौन भाव से सुरक्षा बलों द्वारा किये जा रहे ‘मानुष-शिकार’ को बड़े संतोष से देख रहा है. दो दिन पहले छह महिलाओं सहित आठ माओवादियों को छत्तीसगढ़ के बीजापुर में मार गिरया गया. उसके एक दिन पहले महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में 39 लोगों को मार गिराया गया. चर्चा यह है कि इस ‘मुठभेड़’ कई ग्रामीण युवक— युवतियां भी मारे गये जो समीप के एक गांव में विवाह कार्यक्रम में भाग लेने गये थे. कुछ देर के लिए मान लिया जाये कि वे माओवादी ही थे, बावजूद इसके यह ‘मानुष आखेट’ किसी भी तरह से उचित है?

यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी समझते हैं कि हिंसा चाहे वह राजसत्ता द्वारा हो या हिंसा की राजनीति में संलग्न किसी समूह द्वारा, गलत है. उससे कुछ भी हासिल नहीं होने वाला. हम बारहा कह चुके हैं कि हिंसा के रास्ते मनुष्य की मुक्ति संभव नहीं. खुला, शांतिमय, व्यापक जन भागिदारी वाला संघर्ष ही एकमात्र रास्ता है. लेकिन सत्ता की इस हिंसा को भी हम किसी तरह से जस्टीफाई नहीं कर सकते. और उसे सुरक्षा बलों की वीरतापूर्ण कार्रवाई तो किसी भी तरह से नहीं कह सकते. अपने ही देश के युवाओं को घेर कर मार डालना कैसे उचित है, वह भी एक लोकतांत्रिक देश की पुलिस-सुरक्षा बलों द्वारा?

यदि वे कानून के अपराधी है, तो उन्हें गिरफ्तार किया जाना चाहिये और भादवि की धाराओं के तहत अदालतों के समक्ष पेश किया जाना चाहिये. लेकिन इस तरह के मामले लगभग न के बराबर हैं जब किसी माओवादी या नक्सली पर अदालत में मुकदमा चला हो और उसे सजा दी गई हो. सामान्यतः यही होता है कि उन्हें घेर कर कथित ‘मुठभेड़’ में मार दिया जाता है या फिर जेल में बिना मुकदमा चलाये बंद रखा जाता है.

जरूरत इस बात की भी है कि हम उन कारणों को भी समझने की कोशिश करें जिससे एक सीधा-सादा जीवन-यापन करने वाला युवा माओवादी बन जाता है. क्योंकि जब तक हम उन कारणों का निस्तार नहीं करेंगे, तब तक माओवादी बनने की प्रक्रिया भी खत्म नहीं होगी.