कामरेड राय पिछले कुछ दिनों से बोलने की स्थिति में नहीं. वे साथ बैठते तो हैं, लेकिन मौन भाव से सब कुछ सुनते रहते हैं. हां, उनके चेहरे पर एक सात्विक मुस्कान हर वक्त तैरती रहती है. 60 के दशक से वे झारखंड की राजनीति में सक्रिय हैं. आज के पतनशील राजनीति के दौर में उन गिनु चुने राजनीतिज्ञों में से एक जिनके सफेद चादर जैसे निर्मल व्यक्तित्व पर एक भी बदनुमा दाग नहीं. जिनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और सामाजिक सरोकारों की निष्ठा पर कोई संदेह नहीं कर सकता.

वैसे, यह व्यक्तिगत ईमानदारी किसी काम की नहीं होती यदि उसमें वैचारिक उष्मा की आंच और आदिवासी, दलित जनता के प्रति गहरी प्रतिद्धता सन्निहित नहीं होती. वैचारिक उष्मा का मतलब यह कि आजकी तारीख में झारखंड में एक भी नेता ऐसा नहीं जिसके पास झारखंड में व्याप्त अराजक स्थिति से निकलने की कोई युक्ति हो, झारखंड के पुनरनिर्माण का कोई विजन हो. लेकिन कामरेड राय झारखंड के पुनरनिर्माण की एक मुक्कमल दृष्टि रखते हैं. और आदिवासी जनता के प्रति उनकी प्रतिद्धता का गवाह तो है यह तथ्य कि कट्टर माक्र्सवादी होते हुए भी उन्होंने उस दौर में झारखंड अलग राज्य की मांग का समर्थन किया जब लगभग सभी वाम दल इस मांग का समर्थन तो दूर, इसका विरोध करती थी. सिर्फ वामदल ही नहीं, लगभग सभी गैर झारखंडी दल इस मांग के विरोध में खड़ी थी. कांग्रेस ने जयपाल सिंह के साथ छल किया था. भाजपा झारखंड अलग राज्य के गठन के कुछ वर्ष पूर्व तक इस मांग का विरोध करती रही. जबकि राय न सिर्फ इस मांग का समर्थन करते थे, बल्कि झारखंड को समाजवादी आंदोलन के लिए उर्वर भूमि मानते थे. उनका कहना था कि आदिवासी से अधिक सर्वहारा आज की तारीख में है कौन?

मेरा उनसे सन् 86 से संपर्क रहा है. बोकारो स्टील सिटी में उनके श्रमिक संगठन बोकारो प्रोग्रेसिव फ्रंट का दफ्तर था. उसके बगल के क्वार्टर में मैं कुछ वर्ष रहा. वे अक्सर बगल में डायरी दबाये गुजरते दिख जाते. टखनों तक पहुंचते पायजामे और सफेद मगर थोड़े मलिन गोल गले के कुर्ते में. सड़क से गुजरते दिख जाते. मैं ने उनसे कई बार आग्रह भी किया कि दादा, आपको कही ड्राप कर दूं, लेकिन उन्होंने हमेशा विनम्रता से मना कर दिया. हां, पत्रकार की हैसियत से उनसे कई बार मेरी अंतरंग बातें हुई. कभी बोकारो प्रोग्रसिव फ्रंट के दफ्तर में. कई बार धनबाद स्थित उनके कार्यालय में और कुछ अवसरों पर रांची में भी. मेरे पहले उपन्यास ‘समर शेष है’ में कोयलांचल की राजनीति और माफिया के खिलाफ झारखंडी जनता के संघर्ष का खाका उनसे हुई बातचीत के आधार पर ही मूलतः तैयार हुआ था. ट्रेड यूनियन मूवमेंट को लेकर मेरा उनसे विरोध था. मेरा मानना था कि ट्रेड यूनियन मूवमेंट बोनस-इनसेंटिव की लड़ाई में बदल कर रह गया है. इससे कुछ उम्मीद करना बेकार है. लेकिन उनका कहना होता कि वे मजदूरों को बोनसमुखी नहीं बनाते हैं.

यहां प्रस्तुत है कुछ महत्वपूर्ण मुद्दो पर उनकी राय जो उनसे हुई बातचीत पर आधारित है और उन्हीं के शब्दों में है.

झारखंड में एनडीए सरकार

एनडीए सरकार की अपनी एक राजनीति है. अपना एक सोच है जो बीजेपी का आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सोच है. इस से झारखंडी परंपरा और सोच का बुनियादी विरोध है. बीजेपी का सोच बाजारवादी सोच है. जो पूंजीवादी सोच का एक विशेष विकृति है. यह सोच उत्पादन से ज्यादा व्यापार को महत्व देता है. वर्ग चरित्र के रूप में भी यह खूब स्पष्ट है कि बीजेपी सेठ साहूकारों, और इस प्रकार बिचैलिया वर्ग की पार्टी है जो पिछले कुछ वर्षों से उद्योग पर भी अपने बाजारवादी सोचा के साथ हस्तक्षेप कर रही है. उदारीकरण, निजीकरण और विदेशीकरण का जो उफान आज झारखंड में देखा जा रहा है, यह उन्हीं की देन है.

दूसरी तरफ झारखंडी सोच, संस्कृति और परंपरा यदि पूर्णरूपेण समाजवादी नही ंतो निश्चित रूप से समाजमुखी है. बाजार से ये अक्सर दूर रहते हैं. बहुत जरूरी होने पर ही बाजार का रूख करते हैं. झारखंडी श्रम पर विश्वास करते हैं और उत्पादन करके अपने बलबूते जीवित रहना चाहते हैं. सही मायने में वे व्यापारी वर्ग के विरोधी हैं और उन्हें ठग के रूप में देखते हैं.

झारखंडी, विशेष कर आदिवासी लोगों का एक विशेष गुण है और उनकी विशेषता भी कि वे पैसे से ज्यादा इज्जत को महत्व देते हैं. भारत में दो ही संप्रदाय ऐसा है जो भीख नहीं मांगता. एक आदिवासी, दूसरा सिख. सिख भारत का संपंन्न समाज है, जबकि आदिवासी भारतीय समाज का सबसे गरीब, दलित और पीड़ित तबका है. इस चरम विपन्नता के अंदर रह कर आत्मसम्मान को बरकरार रख कर सर उंचा कर जीना आसान नहीं. इस बात का सही आकलन किये बगैर झारखंड का विकास संभव नहीं.

झारखंड की उर्जा

झारखंड की असली उर्जा है झारखंडी भावना. इसी लिए तमाम झारखंडी नेताओं को खरीद कर के भी पूर्व में झारखंड आंदोलन को समाप्त नहीं किया जा सका और अंत में झारखंड अलग राज्य का गठन उन्हें करना पड़ा. उनकी समझ थी कि झारखंडी जनता इस बात से उपकृत हो कर उनसे बंधी रहेगी. लेकिन अब तक का अनुभव तो यह है कि बहुत कुछ देने के आश्वासन के बावजूद झारखंडी जनता का नब्ज उनकी पकड़ में नहीं आया है. झारखंडी भावना, जो झारखंड निर्माण की उर्जा बन सकती थी, के साथ शासक वर्ग का कोई संबंध नहीं. हमे इस बात को याद रखना चाहिए कि अलग राज्य के रूप में झारखंड के गठन के पूर्व भी इस क्षेत्र का विकास हुआ था. बहुत सारे उद्योग धंधे लगे थे. सार्वजनिक क्षेत्र में लगी कुल पूंजी का बड़ा भाग इसी राज्य में लगा. सिंदरी, बोकारो, एचईसी, बीसीसीएल, सीसीएल, डीवीसी आदि इसके उदाहरण हैं. लेकिन तमाम विकास बाहर से आये विकसित लोगों का चारागाह रहा. झारखंडियों का विकास नहीं हुआ, बल्कि उन्हें विस्थापन, उपेक्षा और शोषण का शिकार होना पड़ा. इसलिए झारखंडी जनता इस थोपे हुए विकास से नफरत करती है. जिस विकास में उनसे पूछा नहीं जाता, जिसमें उनकी कोई भागिदारी नहीं, उस विकास का वे विरोध करते हैं. किसी भी क्षेत्र का विकास उस क्षेत्र विशेष के जन समुदाय के सक्रिय सहयोग और उत्साह के बिना एक सीमा के उपर नहीं जा सकता. दरअसल झारखंड शुरु से ही एक आंतरिक उपनिवेश बन कर रहा और आंतरिक उपनिवेश एक दायरे से उपर उठ कर विकास की राह पर नहीं चल सकता. इसलिए तमाम कल कारखानों, प्राकृतिक संसाधनों और खनिज संपदा के बावजूद अपने गरीबी के अंदर ही रहा. और बिहार की भी गिनती देश के सर्वाधिक पिछड़े राज्य के रूप में होती रही. क्योंकि आजादी तथा मुक्ति के बोध के जरिये समाज के अंदर जो उर्जा पैदा होती है, वही विकास की असली पूंजी है. बाहर से चाहे जितनी भी पूंजी लाई जाये, वह उस पूंजी का मददगार हो सकती है, उसका विकल्प नहीं. किसी भी तरह का बदलाव या आर्थिक-औद्योगिक क्रांति सामाजिक क्रांति के बगैर संभव नहीं. और झारखंड के विकास का तो यह सबसे जरूरी पहलू है. एक आम झारखंडी मानसिकता हमेशा से एक सामाजिक मुक्ति की तरफ रही है. बिरसा मुंडा की लड़ाई का मुख्य ंिबंदू सत्ता नहीं थी, अंग्रेजों की दासता से मुक्ति का संघर्ष था. जो नये नये ठेकेदार पैदा हो रहे थे, महाजन पैदा हो रहे थे, उससे मुक्ति की लड़ाई थी वह. इसी तरह सिधो कान्हू का हूल जिसका अर्थ क्रांति है, तमाम सामाजिक एवं राजनीतिक शोषण के विरुद्ध था. उस संघर्ष का चोट उस समय की कानून व्यवस्था पर पड़ा. परिणामस्वरूप उसके आंशिक निदान के लिए 1908 में छोटानागपुर और संथाल परगना क्षेत्र के लिए विशेष भू कानून के रूप में टिनेंसी एक्ट आया. लागों को उम्मीद थी और शहीदों का सपना भी था कि अलग राज्य बनने के बाद वे उन बंधनों से मुक्त होंगे जिनसे आज भी वे जकड़े हुए हैं. उनका घ्यान इस बात पर केंद्रीत नहीं था कि अलग राज्य बनने के बाद कितनी विदेशी कंपनियां राज्य में आयेंगी और यहां पंूजी निवेश करेंगी. उनकी उम्मीद यह थी कि नये राज्य के गठन के बाद वे अपनी सोच, अपनी समझदारी से अपने विकास की योजनाएं बनायेंगे और अपने नेतृत्व में राज्य का विकास करेंगे.

लेकिन राज्य के गठन के बाद सरकार ने ऐसी नीति बनाई जो उनकी सोच के बिल्कुल विपरीत है. झारखंडी जनता उपर से थोपा हुआ विकास नहीं चाहते. लेकिन सरकार ने ऐसी नीति बनाई जो सिर्फ उपर से थोपा हुआ नहीं, बल्कि आसमान से उतरेगा. बाहर से बहुराष्ट्रीय कंपनियां आयेंगी, आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर उन्हें उपर उठा देंगी. अभी से यह कोशिश हो रही है कि विदेशी कंपनियां जो उपभोक्ता सामान बनाये, उसका खरीदार आदिवासी हो. यानी, वह उत्पादन करने वाला नहीं, उपभोक्ता माल का क्रेता बने. टीवी और अन्य प्रचार माध्यमों द्वारा जारी धुंआधार विज्ञापनों से आदिवासियों को आकर्षित किया जा रहा है और उनके चरित्र की शुद्धता को नष्ट करने की साजिश की जा रही है. यह विकास की एक ऐसी दिशा है जो समाज की जगह बाजार को स्थापित करना चाहता है और इससे आदिवासियों की पहचान ही मिट जायेगी. और यह सब झारखंडियों को मुख्यधारा में लाने के नाम पर हो रहा है ताकि भू मंडलीकरण के ंदौर में वे बह जायें. ये तमाम चीजें झारखंड के विकास तथा झारखंडियों की मुक्ति के राह के बाधक हैं.

निदान क्या है?

यह जो स्थिति है उसका निदान तभी हो सकता है जब झारखंड के लिए अब तक लड़ने वाले और सही रूप में झारखंडी भावना से जुड़े लोग सही राजनीतिक दिशा के साथ राज्य के नेतृत्व में आये. लेकिन यहां विडंबना यह है कि जो लोग झारखंड के लिए लड़े हैं और जिनका झारखंडी भावना और संस्कृति से लगाव है, उनको झारखंड के विकास की सही दिशा का ज्ञान और समझ नहीं, दूसरी तरफ जिनके पास यह समझ है, उनका झारखंडी भावना और संस्कृति से लगाव नहीं. वह दिशा क्या है? वह समाजवादी दिशा है. झारखंडी आंदोलन बुनियादी रूप से एक सामाजिक आंदोलन है जो एक स्तर के बाद राज्य के आंदोलन में बदल गया और उन्हें अलग राज्य मिला. अब इस अलग राज्य को उनके अपने राज्य में बदलना है तो उनके सामाजिक आंदोलन के सूत्र को पकड़ कर उसे समाजवादी आंदोलन में बदलना पड़ेगा. त्रासदी यह कि आम झारखंडी नेता समाजवादी आंदोलनमुखी नहीं और जो समाजवादी आंदोलन से जुड़े हैं, वे झारखंडी नहीं. इन दोनों में कैसे समन्वय लाया जाये, यह हमारी कोशिश होनी चाहिए. मेरी स्पष्ट धारणा है कि झारखंडी नेतृत्व के अंदर समाजवादी एवं वामपंथी विचारधारा उनके अस्तित्व रक्षा के लिए नितांत जरूरी है. लेकिन एक साजिश के तहत इसे पीछे ढकेला जा रहा है और उसकी जगह सांप्रदायवादी, जातिवादी और उपभोक्तावादी रुझान पैदा किया जा रहा है.

हमे झारखंड की इस विशेषता को कभी नहीं भूलना चाहिए जो उसे नागालैंड, मिजोरम से अलग करता है. यहां आदिवासी हैं, गैर आदिवासी हैं. अनेक भाषा और संस्कृति है और औद्योगिकरण की वजह से यहां औद्योगिक मजदूरों की एक विशाल आबादी है जिसका एक बड़ा हिस्सा बाहरी मजदूरों का है. लेकिन यहां कभी इनमें टकराव नहीं हुआ जैसा कि आज हम असम में देखते हैं. बाहरी मजदूरों ने भी हमेशा झारखंड आंदोलन का साथ दिया 70 के दसक में तो लाल हरे झंडे की मैत्री ने झारखंड आंदोलन को दिशा देने में अहम भूमिका निभाई. आज भी उसी एकता को कायम कर हम भटकाव से बच सकते हैं और झारखंड को एक नये स्वरूप में गढ सकते हैं.