वर्ण व्यवस्था व जाति व्यवस्था के खिलाफ कई आन्दोलन हुए हैं, जिनकी मुख्य धाराओं की हम यहाँ समीक्षा कर रहे हैं:

बौद्ध व जैनियों का संघर्ष

गौतम बुद्ध व महावीर के जमाने में मेहनतकश वैश्य व शूद्र वर्णों के लोग सामन्ती राजाओं से काफी परेशान थे. उन्हें भारी मात्रा में कर देना पड़ता था और शासक समूहों की प्रताड़नाओं का शिकार भी होना पड़ता था। इससे मुक्ति के लिए उन्होंने बौद्धों व जैनियों का सहारा लिया। चूँकि बौद्धों व जैनियों ने वर्ण व्यवस्था का विरोध किया और इस व्यवस्था से पीड़ित लोगों, यहाँ तक कि अछूत चांडालों के लिए भी अपने मठों व मन्दिरों के दरवाजे खोल दिये, इसलिए भारी तादाद में उक्त वर्णों के लोग बौद्ध व जैन धर्म को स्वीकार किये। लेकिन इन दोनों सम्प्रदाय के गुरुओं ने सामन्ती उत्पादन सम्बन्ध पर चोट नहीं किया, इसलिए वे वर्ण/जाति व्यवस्था विरोधी संघर्ष को आगे नहीं बढ़ा सके।

भक्ति आन्दोलन 12वीं सदी से 17वीं सदी तक

इस आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले अधिकांश सन्त चमार, लोहार, बढ़ई, जुलाहा व अन्य दस्तकार जाति से थे। उनमें से कुछ ब्राह्मण जाति से भी थे। इस आन्दोलन की एक रेडिकल धारा भी थी जिसका प्रतिनिधित्व बासवन्ना, तुकाराम, नामदेव, कबीर व गुरुनानक जैसे सन्त करते थे। उन्होंने खुलेआम ब्राह्मणवादी पाखंड व जातीय भेदभाव का विरोध किया। खासकर गुरुनानक व कबीर ने तो हिन्दूवाद पर गहरा चोट किया। भक्ति आन्दोलन की इस धारा ने सामन्तवाद के वैचारिक व भौतिक आधार को जबरदस्त चुनौती दी। लेकिन इस आन्दोलन के अन्तिम दौर में रामदास व तुलसीदास जैसे दकियानुसी सन्त भी आये जिन्होंने वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणवाद

को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया।

यह आन्दोलन भी इसलिए असफल हो गया, क्योंकि इसने जाति व्यवस्था का आधार, सामन्ती उत्पादन प्रणाली पर और उसके भू-सम्बन्धों पर चोट नहीं किया।

ब्राह्मण-वर्चस्व विरोधी आन्दोलन

इस आन्दोलन की शुरुआत 20वीं सदी के शुरू के वर्षों में हुई, जिसमें ब्राह्मणों के सामन्ती वर्चस्व व शोषण के खिलाफ मध्य जाति के शूद्रों व अछूतों को गोलबन्द किया गया। इसका एक हिस्सा केवल शिक्षा व सरकारी नौकरियों में ब्राह्मणों के एकाधिकार के खिलाफ संघर्ष किया, जबकि दूसरे रेडिकल हिस्से ने पूरी जाति व्यवस्था व ब्राह्मणवाद को चुनौती दी। साथ ही, उन्होंने किसानों व मध्य वर्गों की समस्याओं को भी उठाया। इसलिए इस हिस्से को शोषित-पीड़ित जनता का व्यापक समर्थन मिला। उनके संघर्ष से साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई में व्यापक जनता की गोलबन्दी को बढ़ावा मिला। आगे चलकर इस आन्दोलन में शामिल गैर-ब्राह्मण जातियों के आगे बढ़े हुए तबकों ने चुनावी राजनीति में भाग लेकर कई राज्यों में राजनैतिक सत्ता पर कब्जा भी किया। इस प्रकार वे दलितों व गरीबों के नये शोषक समूह बन गये।

महाराष्टं में मराठा,आन्ध्र प्रदेश में रेड्डी व कम्मा, कर्नाटक में वोकालिंगा व लिंगायत, गुजरात में पटेल,बिहार में यादव व कुर्मी व हरियाणा में जाट जातियों के प्रतिनिधियों का सत्तासीन होना इसके उदाहरण हैं।

ज्योतिबा फूले व पेरियार का आन्दोलन

ब्राह्मण वर्चस्व विरोधी आन्दोलन में ज्योतिबा फूले व पेरियार का नाम काफी गर्व के साथ लिया जाता है। ज्योतिबा फूले ने 1853 में सत्य शोधक समाज का गठन कर मुख्यतः ब्राह्मणवादी हिन्दू पुनरुत्थानवाद के खिलाफ संघर्ष किया। लेकिन इस आन्दोलन ने शुरू से ही जनवादी रवैया अपनाया और साथ ही साथ, जातीय शोषण, विधवा विवाह, शराबखोरी, नौकरशाही का दमन, महाजनों की लूट, किसानों की भूमि से बेदखली, भारतीय सम्पदा की साम्राज्यवादियों द्वारा की जा

रही लूट जैसे मामलों को भी उठाया। इस तरह फूले ने देशी सामन्ती प्रतिक्रियावादी आधार व इसके उपरी ढाँचा के साथ-साथ ब्रिटिश शासन पर ही हमला किया। लेकिन इसके पहले कि उनका संघर्ष बुनियादी भूमि सम्बन्धों को चुनौती देता,उनकी मौत हो गयी। उनकी मृत्यु के बाद आन्दोलन का नेतृत्व कोल्हापुर के सामन्ती महाराजा के हाथों में आ गया और इसका जनवादी सर्वव्यापी चरित्र कायम नहीं रह सका। आगे चलकर इस आन्दोलन का मूल चरित्र ही बदल गया

और अब इसका लक्ष्य ब्राह्मणों की जगह क्षत्रियों/मराठों को बेहतर स्थान दिलाने तक सीमित हो गया। इस निहित स्वार्थ की प्राप्ति के लिए इसके नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से समझौता तक किया।

इ.वी. रामास्वामी, जिन्हें पेरियार के नाम से जाना जाता है, शुरू में कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़े थे। लेकिन कांग्रेसी नेताओं के जातिवादी पूर्वाग्रहों से उन्हें काफी घृणा हुई और उससे बाहर आकर उन्हांने 1925 में ‘आत्म-सम्मान आन्दोलन’ की शुरुआत की। इसके पूर्व तमिलनाडु में ‘जस्टिस पार्टी’ बन चुकी थी और 1920 के मद्रास प्रेसीडेंसी चुनाव में उसे बहुमत भी प्राप्त हो चुका था। पेरियार आमतौर पर जस्टिस पार्टी के मंच का इस्तेमाल किया करते थे, लेकिन इस पार्टी

की प्रान्तीय सरकार बनने के बाद उनके रुख में परिवर्तन आया। उन्होंने इस सरकार की जन विरोधी व दलित विरोधी कार्रवाइयों की तीखी आलोचना की। नतीजतन उन्हें ब्रिटिश सरकार के दमन का शिकार बनना पड़ा। उन्होंने 1942 में द्रविड़ कड़गम पार्टी का गठन किया जो आगे चलकर डी.के. और डी.एम.के. में विभाजित हो गयी। उन्होंने 15 अगस्त 1947 को ‘शोक दिवस’ के रूप में मनाने का आह्वान किया और ‘आजाद भारत’ के कांग्रेसी राज को ‘ब्राह्मण राज’ की संज्ञा दी।

आगे उन्होंने डी.एम.के. का समर्थन किया। इसी डी.एम.के. के शासन के दौरान तंजावूर के जालिम जमीन्दारों के गुंडों ने दलितों की झोपड़ियों में आग लगाकर 70 से ज्यादा औरतों व बच्चों को जिन्दा जला दिया। जिन हत्यारों पर इस जघन्य जनसंहार का अभियोग लगाया गया, उन्हें कोर्ट द्वारा बरी भी कर दिया गया। इस तरह पेरियार द्वारा शुरू किये गये जाति विरोधी आन्दोलन की एक दुखद परिणति हुई। हालाँकि इस आन्दोलन ने देश के स्तर पर जाति विरोधी भावना पैदा करने में एक अहम् भूमिका अदा की।

अगले अंक में अम्बेडकर का जाति उन्मूलन संघर्ष