कम्युनिस्ट आन्दोलन में शुरू से ही जाति प्रश्न को लेकर गम्भीर मतभेद रहे हैं. हालाँकि 1930 में सी.पी.आई.ने भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के महत्त्व को समझा और ‘फोरम फाॅर एक्शन’ शीर्षक प्रस्ताव में ‘छुआछूत व जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष को कृषि क्रान्ति और साम्राज्यवादी शासक विरोधी संघर्ष से जोड़ने’ का आह्वान किया, लेकिन आगे चलकर उसने कृषि क्रान्ति व साम्राज्यवाद विरोधी मुकम्मल संघर्ष से ही अपना नाता तोड़ लिया. बी.टी.रणदिवे, जिन्होंने ‘जाति व वर्ग’ के अन्तरसम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिए एक पुस्तिका लिखी, के विशेष प्रयास से सी.पी.आई.एम. ने 1980 के दशक के अन्त में ‘सामन्ती तथा अर्ध-सामन्ती विचारधाराओं के खिलाफ लड़ाई को

​फिर से बड़े पैमाने पर शुरू करने का फैसला किया, ताकि बिहार व उत्तर प्रदेश; जहाँ अर्ध-सामन्ती उत्पादन सम्बन्ध काफी मजबूत है, में उनके जनाधार का विस्तार हो सके. लेकिन उन्होंने भी सी.पी.आई. की तरह जाति व्यवस्था के मूलाधार सामंती उत्पादन प्रणाली पर चोट करने का कोई कार्यक्रम नहीं बनाया. नतीजतन, उनका जनाधार खिसकता गया और अन्ततः उन्हें पश्चिम बंगाल व केरल में भी अपनी सत्ता गँवानी पड़ी.

इस प्रकार सी.पी.आई. व सी.पी.आई.एम. जैसी सुधारवादी पार्टियों ने भारतीय समाज व्यवस्था के अर्ध-औपनिवेशिक व सामन्ती चरित्र को समझने में भूल की और जाति व्यवस्था को आधार से जोड़कर नहीं देखा. उन्होंने विचारधारा, यानी उपरी ढाँचा के स्तर पर जाति व्यवस्था के खिलाफ छिटपुट संघर्ष किया. हालाँकि अन्य बुर्जुआ दलों की तरह जातीय समीकरण बिठाकर चुनावी लड़ाई को जीतना उनका मूल लक्ष्य बना रहा.

नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के बाद जब 1969 में सी.पी.आई.एम-एल का गठन हुआ तो इसने भी जाति-प्रश्न को ठीक से नहीं समझने की गम्भीर भूल की. हालाँकि, 1970 में आयोजित अपनी पार्टी कांग्रेस द्वारा पारित कार्यक्रम में इसने भारत को एक अर्द्ध-सामन्ती व अर्द्ध-औपनिवेशिक देश के रूप में मान्यता दी और जातीय शोषण व उत्पीड़न के प्रश्न को सामंती उत्पादन सम्बन्ध से जोड़कर देखने की कोशिश की, लेकिन जाति के खात्मे की लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए कोई ठोस कार्यनीति विकसित नहीं की. आगे चलकर विभिन्न कारणों से यह पार्टी कई ग्रुपों में विभक्त हो गयी.

जब मंडल कमीशन का दौर आया और सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की माँग को लेकर जुझारू लड़ाई तेज हुई तो कई सी.पी.आई.एम-एल ग्रुपों ने जाति प्रश्न पर गम्भीरता से विचार करना शुरू किया. इनमें से कुछ ने आरक्षण का समर्थन किया और दूसरों ने विरोध. इसी तरह कुछ ग्रुपों ने जाति व्यवस्था को उपरी ढाँचा का सवाल माना, तो दूसरों ने इसे आधार से जोड़कर देखा. कुछ ने तो यह कहा कि वास्तव में ‘जाति’ भारतीय समाज के उपरी ढाँचा का प्रश्न है, लेकिन यह आधार को भी काफी हद तक प्रभावित करता है.

हाल ही में, सी.पी.आई.एम-एल के कुछ ग्रुपों व भारत को अर्द्ध-सामन्ती व अर्द्ध औपनिवेशिक देश मानने वाले अन्य समूहों ने एकताबद्ध पार्टी का निर्माण किया है और वर्ग संघर्ष को मुख्य कड़ी के रूप में चलाते हुए जाति व्यवस्था के खात्मे की लड़ाई को तेज करने का निर्णय लिया है. लेकिन आज भी उनके अन्दर जाति व्यवस्था के बारे में सही सैद्धान्तिक समझ हासिल करने और जाति उन्मूलन के लिए उचित कार्यनीति विकसित करने की समस्या बनी हुई है. अगर वे इन दोनों समस्याओं को हल करने में सफल होते हैं तो न केवल वर्ग संघर्ष के स्तर में गुणात्मक विकास होगा, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन की समग्र लड़ाई को अग्रगति प्रदान होगी. लेकिन अगर देश की क्रान्तिकारी ताकतें सी.पी.आई.,सी.पी.आई.एम. की तरह वर्ग संघर्ष को यांत्रिक रूप से विकसित कर ‘जाति-समस्या’ का हल निकालने का प्रयास करती रहेंगी या अपनी कार्यनीति को तमाम प्रकार के जाति व लिंग आधारित शोषण-उत्पीड़न का विरोध करने और शिक्षा,

रोजगार, राजनीति आदि में आरक्षण दिलाने तक सीमित रखेंगी तो कभी भी वे देश की बहुसंख्यक जनता को क्रान्तिकारी बदलाव के पक्ष में गोलबन्द करने में सफल नहीं हो पाएँगी. उनका वर्गीय आन्दोलन चाहे कितना भी जुझारू क्यों न हो, शोषित-दलित-उत्पीड़ित जनता के व्यापक व सक्रिय समर्थन के बिना उसे लम्बे समय तक टिकाना मुश्किल होगा.

हमारी समझ में आज तमाम जनवादी व क्रान्तिकारी ताकतों का दायित्व बनता है कि वे साम्राज्यवाद,दलाल नौकरशाह, पूँजीवाद व सामन्तवाद के गठजोड़ को चकनाचूर करने और अर्द्ध औपनिवेशिक-अर्द्ध सामन्ती व्यवस्था को जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए वर्ग संघर्ष को जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष से जोड़ें. वे इस बात को अच्छी तरह आत्मसात करें कि हमारे देश में जाति व्यवस्था केवल उपरी ढाँचे का मामला नहीं है, बल्कि आधार का भी मामला है. जब तक जाति व्यवस्था की जड़ अर्द्ध सामन्ती उत्पादन प्रणाली और उसके साथ-साथ देश के अधिकांश ग्रामीण इलाकों में मौजूद सामन्ती/अर्द्ध सामन्ती प्राधिकार को ध्वस्त नहीं किया जाएगा, तब तक जाति व्यवस्था के खात्मे की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता है.

इसके साथ-साथ हमें यह भी याद रखना होगा कि आधार में आये बदलाव, यानी व्यवस्था परिवर्तन के बाद भी जातीय विचारधारा और जाति आधारित विभेद व पक्षपात के खिलाफ निरन्तर संघर्ष जारी रखना होगा. लेकिन तब यह लड़ाई उपरी ढाँचा के दायरे में होगी. आदमी द्वारा आदमी के शोषण व शोषण की मशीनरी राजसत्ता के समूल विनाश के लिए सतत सांस्कृतिक क्रान्ति को जारी रखना अत्यावश्यक होगा.