भाजपा सरकार ने अभी-अभी हजार दिन पूरा होन का जश्न मनाया है. और शहर के पोस्टरों में, प्रत्येक छोटे-बड़े अखबारों में दिये गये विज्ञापनों में अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि यह बता रही है कि उसने 1000 दिन पूरे कर लिये. कोई भी पूर्व की सरकार इतने दिनों तक लगातार झारखंड में नहीं चली. और वजह भी साफ है. झारखंड में अधिकतर दिनों तक दलबदलुओं की सरकार रही है. पहली सरकार बाबूलाल के नेतृत्व में भाजपा ने बनाई लेकिन उन पर जोर रहा जदयू के गिने चुने विधायकों का, जो सरकार को डिकटेट करते रहे. यहां तक कि लालचंद महतो और मधु सिंह जैसे भ्रष्ट नेताओं के दबाव में झारखंड के तत्कालीन प्रभारी राजनाथ सिंह ने बाबूलाल की बलि दे कर सरकार बचाई थी. मजेदार बात कि आज तो रघुवर दास उन्हें चमत्कारिक कार्यकर्ता लग रहे हैं, लेकिन उस वक्त उन्हें रघुवर दास नहीं, झामुमो छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए अर्जुन मुंडा चमत्कारिक नेता लगे थे.

झारखंड ने वह दिन भी देखा जब मधु कोड़ा जैसे एक निर्दलीय विधायक ने झारखंड पर राज किया और भ्रष्टाचार के कीर्तिमान बनाये. और अभी की सरकार जिसने 1000 दिन पूरे किये हैं, क्या वह भी वास्तव में दलबदलुओं के बदौलत नहीं चल रही है? यह सही है कि भाजपा ने पिछले चुनाव में एकबारगी 18 सीटों से छलांग लगा कर 37 सीटों पर पहुंच गई और वह चाहती तो मिल कर चुनाव लड़ने वाले आजसू की जीती पांच सीटों के साथ सरकार बना लेती. लेकिन भाजपा के रणनीतिकारों ने आजसू नेता सुदेश महतो को उनकी औकात बताने के लिए पहले बाबूलाल की पार्टी के छह विधायकों को फोड़ा, उनका मर्जर पार्टी में कराया और तब सरकार बनायी.

यह भी समझने की जरूरत है कि भाजपा किसी चमत्कार या पूर्व में किये गये किसी अच्छे काम की वजह से 18 की जगह 37 सीटों पर नहीं जीती. वह जीती तो सिर्फ विभाजित विपक्ष की वजह से. भाजपा और आजसू के बीच तो चुनाव पूर्व एलायंस हुआ, लेकिन अहंकार में डूबी झामुमो, कांग्रेस और झाररखंड विकास पार्टी अपनी डफली अपना राग गाती बजाती रही. परिणाम भाजपा विरोधी वोट बंट गया और भाजपा एकबारगी 18 सीटों से 37 सीटों पर पहुंच गई. उसे मिले 31.37 फीसदी वोट लेकिन भाजपा विरोधी मतों में 20.4 फीसदी वोट झामुमो को, 10.5 फीसदी वोट कांग्रेस को और 10 फीसदी वोट बाबूलाल को मिला. यानि, यदि वोटों का विभाजन नहीं होता तो भाजपा का जीतना असंभव था. मोदी के धुआंधार प्रचार के बावजूद. इस चुनाव में झामुमो को 19 सीटें, कांग्रेस को 6 और बाबूलाल को आठ सीटें मिली. उस पर भी बाबूलाल के आठ में से छह दलबदलु भाग गये उनका दामन छोड़.

वैसे, आप कहेंगे भाजपा को वोट सबसे अधिक तो मिले ही. हां, यह सही है. और आने वाले दिनों में हालात कुछ बदलने वाले भी नहीं. विकास एक छलावा है, और चुनावी राजनीति दरअसल चुनावी समीकरणों से जीती या हारी जाती है. भाजपा ने हाल के दिनों में झारखंडी एकता को तोड़ने में बड़ी कामयाबी हासिल की है. धर्मांतरण बिल द्वारा सरना और ईसाई के बीच फूट डालने का प्रयास, सनातन और सरना को एक बताने की साजिश, कुर्मी मतदाताओं का भाजपा की तरफ बढता रुझान, सब कुछ भाजपा की राजनीतिक स्थिति को मजबूत बना रहा है.

बावजूद इसके यदि विपक्ष एकजुट हुआ तो भाजपा के लिए किसी भी चुनाव में बड़ी जीत दर्ज करना मुश्किल होगा- चाहे वह संसदीय चुनाव हो या विधानसभा चुनाव. आजसू से हमे उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. उनकी दिक्कत यह है कि भाजपा की मदद के बगैर वे चुनाव लड़े तो उनके वोटर भाजपा में भाग जायेंगे. इसलिए अपमान सह कर भी वे भाजपा के साथ बंधे रहेंगे. लेकिन झामुमो, कांग्रेस, राजद, वामदल और बाबूलाल की पार्टी ने जिस तरह की एकजुटता हाल के दिनों में दिखाई है, वह यदि बनी रहे तो भाजपा को अब भी टक्कर दी जा सकती है.

लेकिन वे ऐसा करेंगे? या प्लेट में सजा कर झारखंड की सत्ता भाजपा को सौंप देंगे,यह तो आने वाला वक्त बतायेगा.