झारखंड गठन के बाद के 17 वर्षों में अधिकांश समय भाजपा का ही शासन रहा. लेकिन झारखंडी अस्मिता को जितनी क्षति रघुवर दास के ढाई वर्षों के शासन में हुई है, उतनी एक दशक से अधिक के शासन में नहीं. इसका एक ठोस प्रमाण है, झारखंड में हाल के दिनों में भूख से हुई मौत की घटनायें. आदिवासी जीवन हमेशा से कठिन रहा है, लेकिन भूख से मौत की घटना यहां विरल थी. लेकिन रघुवर दास की सरकार ने वह भी दिखा दिया.

बवजूद इसके क्या आप दावे के साथ कह सकते हैं कि 2019 की विधानसभा चुनाव में भाजपा पराजित होगी? शायद नहीं. वजह यह कि इस अल्पावधि में भाजपा ने जितना अपयश हासिल किया, उससे अधिक झारखंडी अस्मिता को तोड़ने का भी काम किया. ईसाई और सरना आदिवासी परस्पर विरोधी बनते जा रहे हैं. झारखंड के कुर्मी वैसे ही भाजपा की तरफ मुखातिब हैं, अब सुदेश की बची खुची हैसियत खत्म करने के लिए राज्य, सरकारी समारोह के रूप में पटेल जयंती मनाने जा रही है. तार-तार झारखंड को क्या विपक्षी दलों की सतही चुनावी एकता जोड़ पायेगी?

सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि भाजपा और कांग्रेस में फर्क क्या है? झामुमो सत्ता में जितने दिन रही, उसने झारखंडी जनता के लिए किया क्या? एक मजबूत डोमेसाईल नीति तक तो वह बनवा नहीं सकी. कोल खदानों के नीलामी का सारा घोटाला उसकी आंखों के सामने हुआ. देशी विदेशी कंपनियों के निवेश पर ही तो उसकी सारी विकास नीति निर्भर करती है.

तो, इन्हीं परिस्थितियों में झारखंड में वैकल्पि राजनीति का सवाल उठ खड़ा हुआ है. यह बात तमाम समाजकर्मियों के दिलोदिमाग में उठती रहती है, लेकिन पहलकदमी की है सालखन सोरेन ने. उन्होंने ऐलानिया कहा कि झारखंड के लिए कांग्रेस और भाजपा- दोनों खतरनाक हैं. झारखंड को अब एक वैकल्पि राजनीति की जरूरत है. जैसे दिल्ली में वैकल्पि राजनीति की धूरि के रूप में आम आदमी पार्टी सामने आई, ठीक उसी तरह झारखंड में भी एक नया प्रयोग होना चाहिये. उन्होंने अपनी पार्टी को नये प्रयोग के लिए टूल के रूप में पेश किया है.

उन्होंने घोषणा की है कि अगले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी झारखंड के सभी विधानसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़ा करेगी. 30 सीट पर आदिवासी, 15 सीट पर मुस्लिम और 10 सीटों पर दलित प्रत्याशी खड़े किये जायेंगे. उन्होंने यह नहीं बताया कि उनकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी या अन्य दलों से गठजोड़ करेगी? यह शायद बाद में तय होगा.

लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या सालखन, केजरीवाल की तरह पूरे देश में एक नया राजनीतिक सितारा बन कर उभरे हैं? या कभी भी उन्होंने झारखंड में किसी बड़े आंदोलन का नेतृत्व किया है? झारखंड आंदोलन के दौरान उनकी भूमिका हमेशा नजरों से ओझल रही. भाजपा के साथ उनके संबंध रहे हैं. वे एक प्रबुद्ध नेता और अच्छे वक्ता रहे हैं और उनमें सांगठनिक क्षमता भी है, लेकिन झारखंडी जनता की नजर में वे विश्वसनीय नहीं रहे और न बहुत ज्यादा लोकप्रिय ही.

वैसे में, झारखंड के तमाम सीटों पर प्रत्याशी खड़ा करने की बात बहुतों को भाजपा की ही एक खतरनाक साजिश लगती है. ज्यादा सर खपाने की जरूरत नहीं. अभी तक लग यह रहा है कि भाजपा को राजनीतिक शिकस्त देने के लिए विपक्षी राजनीति एकजुट होने की कोशिश कर रही है. अपने तिकड़मों से झारखंडी एकता को तार-तार करने वाले रघुवर दास इस बात से चिंतित भी हैं. वैसे में सालखन की यह पहलकदमी किसके काम आयेगी, यह समझना मुश्किल नहीं.

यदि वास्तव में सालखन या कोई अन्य राजनेता वैकल्पिक राजनीति की धूरि बनना चाहता है, तो उसे 19 के विधानसभा चुनाव के लिए नहीं, उसके पांच साल बाद के चुनाव के लिए अभी से तैयारी करनी होगी. इस अवधि का उपयोग जनता के बुनियादी सवालों पर सरकार को घेरने में लगाना होगा. संसदीय प्रणाली जनता के तमाम सवालों का हल नहीं कर सकती. इसके लिए तो जनता को अपने अधिकारों के लिए सजग होना होगा. जन प्रतिनिधियों पर अपना अंकुश बनाना होगा. विस्थापन, पर्यावरण, वैकल्पिक विकास नीति जैसे मुद्दों पर समझ और संघर्ष तीव्र करना होगा. इसी तरह के जन आंदोलनों से वैकल्पिक राजनीति की आधारशिला तैयार होगी. जिसपर हम मजबूती से एकनये किस्म की राजनीति की शुरुआत कर सकते हैं.

बाकी तो सब फरेब है.