हमारा युवा समाज आदिवासी नेताओं के वर्तमान चाल, ढाल और चरित्र को लेकर असमंजस की स्थिति में है. कुछ निराश भी. सत्ता में रहने पर वे कुछ और दिखते हैं और सत्ता से बाहर होते ही उनकी भाव-भंगिमा बदल जाती है. सत्ता में शामिल आदिवासी नेता का झारखंड से जुड़ी समस्याओं पर नजरिया कुछ और होता है, विपक्षी आदिवासी नेताओं का कुछ और.

पहली बात तो यह समझने की है कि यह राजनीति का अपना चरित्र है. वह सभी को अपने रंग में रंग लेती है. सभी राजनीतिक दलों और नेताओं के साथ ऐसा होता है. इसलिए आदिवासी नेता अपवाद नहीं. दूसरी बात, कि आदिवासी समाज सदियों से अपनी एक अलग, स्वायत्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था में जीने का आदि रहा है. कुछ लोग उसे आदिम साम्यवादी व्यवस्था का नाम दे देते हैं, हालांकि वह उससे भिन्न है. इसका मूल तत्व यह कि यहां समाज सर्वानुमति से चलता है. ग्रामसभा यानी, सामाजिक व्यवस्था की सबसे छोटी इकाई केद्र में रहती है. गांव के तमाम फैसले अखड़ा में लिये जाते हैं.

अब एकबारगी आदिवासी समाज एक बड़े लोकतांत्रिक व्यवस्था से जुड़ गया है. गांधी, लोहिया, जेपी ने विकेंद्रित लोकतांत्रित व्यवस्था की बात की थी, जिसमें सत्ता का विकेंद्रीकरण पंचायत, जिला, राज्य और केंद्र में होता, लेकिन वास्तविकत यह है कि हमारे यहां सत्ता केंद्र में संकेंद्रित है और उसके साथ दलीय राजनीतिक व्यवस्था में पार्टी बहुत शक्तिशाली हो गई है. एक और बात कि लोकतांत्रिक व्यवस्था संसदीय चुनाव प्रणाली पर निर्भर है और जो सर्वानुमति से नहीं, बहुमत के आधार पर चलती है.

इस परिप्रेक्ष्य में आईये हम आदिवासी नेताओं की दुविधा और मृगतृश्णा की बात करें. हम किसी नेता विशेश की बात नहीं करेंगे, ट्रेंड की बात करेंगें.

राजनीति में पर्दापण करने वाले नेता दो किस्म के होते हैं. एक तो वे जो सामाजिक संघर्शों से गुजर कर राजनीति में आते हैं, दूसरे वे जो राजनीति को पेशे के रूप में लेते हैं. अब वे जिस भी बैकग्राउंड से राजनीति में आयें, उन्हें जल्द ही इस बात का एहसास हो जाता है कि उनकी राजनीति का मूलाधार तो अपनी जात, बिरादरी और समाज के ही लोग हैं. इसे राजनीति में क्षेत्रवाद कहते हैं. तो, वह अपने क्षेत्र की बात करता है. अपने समाज और बिरादरी के हितों की बात करता है. वह डोमेसाईल नीति का प्रबल समर्थक होता है. वह जल, जंगल, जमीन को बचाने की बात करता है. वह झारखंड के भू कानूनों में किसी तरह के छेड़छाड़ का विरोध करता है. खुद को आक्रामक दिखाने के लिए वह बहिरागतों को भगाने की भी बात करता है.

लेकिन एक बार चुनावी राजनीति में अपनी पैठ बनाने के बाद उसकी महत्वाकांक्षा उसे अपना जनाधार बढ़ाने के लिए प्रेरित करती है. वह इस बात को आसानी से समझ लेता है कि सिर्फ आदिवासी मतों से वह कुछ सीटें जीत कर सत्ता के गलियारे में तो पहुंच सकता है, लेकिन सत्ता पर काबिज नहीं हो सकता, सत्ता में हिस्सेदारी नहीं कर सकता. और यहीं से उसकी मृगतृश्णा, उसका भटकाव शुरु होता है.

मृगतृश्णा यह कि वह थोडा बहुत अपने क्षेत्रीय हितों से समझौता कर बहिरगतों के वोट भी प्राप्त कर सकता है.लेकिन इस दिशा में चलते-चलते वह अपने समाज के हितों से बहुत दूर चला जाता है. भटकाव यह कि वह अपना आधार व्यापक करने के लिए अपने ही समाज के बाहर के बंचित तबकों को जोडने की कोशिश न कर राजनीति पार्टियों से गठजोड़ की तिकड़मों में लग जाता है. दोनों स्थिति में वह अपने क्षेत्रीय हितों को कुर्बान कर देता है.

आईये हम डोमेसाईल नीति का उदाहरण लेते हैं.

डोमेसाईल हर राज्य का होता है. और इसकी एक ही बात महत्वपूर्ण है कि तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के पदों पर स्थानीय लोगों की बहाली हो. लेकिन झारखंड जैसे विशेश राज्य के लिए स्थानीय कौन हैं और बाहरी कौन, यह तो तय करना होगा. लेकिन बहिरागतों का समर्थन खो देने के भय से और उनका समर्थन प्राप्त करने की मृगतृश्णा की वजह से सत्ता में पहुंची क्षेत्रीय पार्टी कोई मजबूत फैसला नहीं ले सकी. विभिन्न दलों में शामिल हो चुके आदिवासी-मूलवासी कोई मजबूत पहलबदमी नहीं कर सके. भाजपा को जो मन किया, उसने वैसा किया. हालांकि कांग्रेस सहित तमाम बहिरगत पार्टियां इस मुद्दे पर एक हो गईं.

एक दूसरा उदाहरण लेते हैं. एचईसी का बनना हमारे तमाम नये पुराने नेताओं ने देखा है. उस पूरे इलाके में आदिवासीबहुल गांव और समुन्नत खेती हुआ करती थी. देखते देखते वे गांव उजड़ गये. कहां गये वहां से उजउ़े लोग, किसी को पता नहीं. कारखाना बना. हजारों बहिरागतों को नौकरी मिली. एक नया शहर ही विकसित हो गया. अब वह कारखाना बंदी के कगार पर है. हजारों हजार आदिवासियों को उजाड़ कर बनी उसकी जमीन पर एक नया शहर-स्मार्ट शहर- बन रहा है. तमाम आदिवासी नेता इस त्रासद कथा के मूक स्रोता बने हुए हैं. जो सत्ता पक्ष में हैं, उनकी तो हिम्मत ही नहीं कि वे भाजपा की किसी नीति का विरोध करें, जो विपक्ष में हैं, उन्हें भी लगता है कि विकास इसी तरह होता है. सत्ता में पहुंच कर उन्हें भी तो यही सब करना है. खदान लीज-पट्टे पर देना. बाहरी पूंजी से कल कारखाने लगाना आदि.. आदि और इस तरह देखते देखते क्षेत्रीय राजनीति भी उस राजनीति के समरूप हो जाती है जिसका विरोध करते हुए वह अस्तित्व में आइ थी. तो, उपाय क्या है? लोकसत्ता को मजबूत करना. जनता के एजंडे को मजबूत करना. बंचित जमात की एकजुटता कायम करना. सत्ता किसी की हो, उस पर नियंत्रण रखने की शक्ति जनता में पैदा करना. जमीनी संघर्श को तेज करना. उससे ही पैदा होगी एक नये किस्म की राजनीति. लेकिन उसके लिए शायद हम मानसिक रूप से तैयार नहीं. जैसे नेता एक मृगतृश्णा के शिकार हैं, वैसे ही हम भी- आदिवासी एकजुटता बना कर हम सब हासिल कर लेंगे. और यह एकजुटता कैसे हासिल होगी - बस ‘जय आदिवासी’ कह देने मात्र से. काश यह इतना आसान होता!