खूंटी में ग्राम सभाओं के द्वारा किये जा रहे पत्थरगड़ी से बौखलाए रघुवर सरकार अब मुख्य मुद्दा से लोगों का भटकाने के लिए अनाप—सनाप बयानबाजी कर रहे. मुख्यधारा के प्रिंट मीडिया भी इस काम में बढ़चढ़ के हिस्सा ले रही है. ‘ग्रामसभा’ को ‘स्वयंभू ग्राम’ सभा का नाम देकर उसका इमेज नेगेटिव बनाने में लगी हैं.

रघुवर सरकार का कहना है कि ग्राम सभा संविधान को नहीं मानती है. लेकिन हर पत्थरगड़ी में सबसे ऊपर भारत का संविधान लिखा हुआ है.

सरकार को सरकार के जैसा व्यवहार करना चाहिए. लेकिन रघुवर सरकार पत्थरगड़ी कर रही ग्राम सभाओं के साथ विपक्षी पार्टियों के जैसा व्यवहार कर रही है.

यदि कोई ग्राम सभा यह कह रही है कि गांव में बाहरी व्यक्ति का बिना आदेश के प्रवेश निषेध है, तो हमारे मुख्यमंत्री जी का स्टेटमेंट आता है कि कौन माई का लाल है जो मुझे गांव में घुसने से रोकेगा? इस तरह का बयान सरकार की कमजोरी और अपने क्रूर साम्राज्यवादी नीतियों को दर्शाता है.

उल्लेखनीय है कि सरदार पटेल ने गृहमंत्री के रूप में सरकार की विकास योजनाओं के खिलाफ आदिवासियों के आंदोलनों को देखते हुए कहा था कि हम आदिवासियों से टकराव नहीं मोल लेना चाहिये.

प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी कुछ इसी तरह के नीतियों का पालन करने का कोशिश की थी. नेहरू ने विकास की नई रूप रेखा तय करते हुए बड़े-बड़े कारखानों एवं डैमों को आधुनिक युग के मंदिर— मस्जिद की संज्ञा दी थी. यह अलग बात कि इन आधुनिक मंदिर मस्जिदों में न तो पूजा/ इबादत करने का मौका और न ही प्रसाद आदिवासियों को मिला.

इस कारण आदिवासी नेहरु जी के बारे में सकारात्मक दृष्टि नहीं रखते. इसका ताजा उदाहरण खूंटी में ग्राम सभा ने स्कूल का बहिष्कार करके अपने से पढ़ाये जा पाठ्यक्रमों से नेहरु को हटा दिया है और उनका विवरण देते हुए लिखा है नेहरु चोरों के प्रधानमंत्री थे.

लेकिन किसी के एक काम से उसका विश्लेषण किया जाना उचित नहीं है. उसका पूरा व्यक्तित्व देख कर विश्लेषण करें तो तर्क संगत लगता है.

नेहरु ने आदिबासी क्षेत्र में विकास के संबंध में अपने नजरिये को स्पष्ट करते हुए पंचशील का सिद्धान्त दिया था. हालांकि यह अलग सवाल है कि उन्होंने या उनके उत्तराधिकरियों ने इस पंचशील का कितना पालन किया या करवाया?

लेकिन उनके इस पंचशील के बारे में हमे जानना चाहिए. सहमति बने या न बने, फिर भी हमे इससे भी बेहतर कोई योजना तैयार करना होगा जिससे आदिवासियों का सर्वांगीण उन्नति हो सके.

  1. लोगों को अपनी प्रतिभा और खासियत के आधार पर विकास की राह पर आगे बढ़ना चाहिए. उनकी पारंपरिक कलाओं और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए.

  2. जमीन और जंगलों पर आदिवासियों के हकों की इज्जत करनी चाहिए.

  3. प्रशासन और विकास का काम करने के लिए हमे उनके लोगों (आदिवासियों) को ही ट्रेनिंग देने और उनकी एक टीम तैयार करने की कोशिश करनी चाहिए, जाहिर है, इस काम के लिए शुरुआत में बाहर के कुछ तकनीकी जानकारों की जरूरत पड़ेगी, लेकिन हमे आदिवासी इलाकों में बहुत ज्यादा बाहरी लोगों को भेजने से बचना चाहिए.

  4. हमे इन इलाकों में बहुत ज्यादा शासन प्रशासन करने से या उन पर ढेर सारी योजनाओं का बोझ लादने से बचना चाहिए. हमे उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं से मुकाबला या होड़ करने से बचना चाहिए. इसके अलावे उनके साथ तालमेल के साथ काम करना चाहिए.

  5. आकड़ो के जरिये कितना पैसा खर्च हुआ है, हमे इस आधार पर विकास के नतीजे नहीं तय करने चाहिए, बल्कि इंसान की खासियत का कितना विकास हुआ है, नतीजे इससे तय होना चाहिए.

लेकिन अब तक की सभी सरकारें, वह चाहे किसी रंग की हों, सबकी नीति एक जैसी ही रही है. कोई भी सरकार बड़ी— बड़ी परियोजनाओं से होने वाले विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन देने की बात नहीं करती है. विस्थापितों को लाभ का एक अंश या शेयर देने को तैयार नहीं है.

और जब ग्रामसभा परियोजनाओं के विरोध में खड़ी होती है, जब ग्रामसभा संविधान के अनुसार ग्रामसभा को निर्णायक और सशक्त करने का बात कर रही है, तो झारखंड सरकार उनके ऊपर अफीम की खेती करने का आरोप, मिशनरियों और नक्सलियों का हाथ बता के मुख्य मुद्दे से लोगों का ध्यान भटका कर अपने सगे पुंजीपतियों का हित साधने में लगी है.