1927 (5 नवम्बर)। गांधी जी के पास 26 अक्टूबर को संदेश पहुंचा कि वाइसराय लार्ड इरविन 5 नवम्बर को उनसे मिलना चाहते हैं। गांधीजी सितम्बर से ही साबरमती आश्रम से निकल चुके थे और देश-व्यापी दौरे के तहत उस वक्त मंगलूर में थे। वे अपना दौरा स्थगित कर दिल्ली पहुंचे। पूर्व निश्चित समय पर उन्हें वाइसराय के सामने उपस्थित किया गया। वाइसराय ने केंद्रीय विधानमंडल के अध्यक्ष विट्ठलभाई पटेल, कांग्रेस के अध्यक्ष श्रीनिवास अय्यंगार, और डॉ.अंसारी को भी बुलाया था। जब सब लोग बैठ गये, तो वाइसराय ने उन्हें एक पर्चा दिया, जिसमें एक सरकारी ब्रिटिश कमीशन के भावी आगमन की घोषणा थी। इस कमीशन के नेता सर जॉन साइमन थे। इस आयोग का उद्देश्य भारतीय स्थिति पर रिपोर्ट देना और राजनीतिक सुधारों की सिफारिश करना था। पर्चे की इबारत पढ़कर गांधीजी ने ऊपर देखा और प्रतीक्षा की। वाइसराय कुछ नहीं बोले। गांधीजी ने पूछा – “क्या हमारी मुलाकात का सिर्फ यही मतलब है?”

“जी हां।” वाइसराय ने कहा।

बस, मुलाकात यहीं खत्म हो गयी। गांधीजी चुपचाप दक्षिण भारत लौट गये। वाइसराय ने अन्य भारतीय नेताओं को भी साइमन के आगमन की सूचना इसी ढंग से दी। किसी के साथ कोई चर्चा या ब्योरेवार बात नहीं की।

8 नवम्बर, 1927 को ब्रिटिश सरकार ने एक 7 सदस्यीय वैधानिक आयोग की घोषणा कर दी, जिसके अध्यक्ष सर जॉन साइमन थे। आयोग के सभी सदस्य ब्रिटिश संसद के अंग्रेज सदस्य थे। उसमें एक भी भारतीय सदस्य को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। वाइसराय ने अपेक्षा प्रकट की कि भारतवासी इस कमीशन के सामने गवाहियां दें और सुझाव पेश करें।

भारत सरकार अधिनियम, 1919 के अंतर्गत ब्रिटिश भारत में सरकार की कार्यपद्धति, शिक्षा के विस्तार, तथा प्रतिनिधि संस्थाओं के विकास एवं उन विषयों से संबंधित मामलों की छानबीन करके इस बारे में रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए गठित इस ‘वैधानिक आयोग’ को यह पता लगाना था, क्या भारत में उत्तरदायी शासन का सिद्धांत लागू किया जाना वांछनीय होगा, यदि हां, तो किस सीमा तक, अथवा तत्कालीन उत्तरदायी शासन का दरजा संशोधित अथवा परिसीमित किया जाय? उसमें यह प्रश्न भी सम्मिलित था कि स्थानीय विधायिका के द्वितीय सदन की स्थापना वांछनीय है अथवा नहीं।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने दिसम्बर, 1927 में साइमन के बहिष्कार का प्रस्ताव पारित कर दिया। मुस्लिम लीग, अखिल भारतीय उदारवादी संघ (ऑल इंडिया लिबरल फैडरेशन), हिन्दू महासभा और भारत के समग्र राजनीतिक जीवन का प्रतिनिधित्व करनेवाले अन्य अनेक संगठनों ने भी साइमन कमीशन के बहिष्कार के प्रस्ताव पारित कर डाले।

1928 (3 फरवरी) । साइमन कमीशन ने बंबई में कदम रखा। भोर 3 बजे साइमन बंबई के मोल बंदरगाह पर जहाज से उतरे। कांग्रेस से जुड़े ‘यूथ लीग’ के स्वयंसेवकों ने यूसुफ मेहरअली के नेतृत्व में काले झंडों और ‘साइमन गो बैक’ के नारों से कमीशन का स्वागत किया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर तत्काल लाठियां चलाईं और साइमन कमीशन के सदस्यों को चोरी-छिपे पिछले दरवाजे से निकाला। उस दिन बंबई में साइमन के विरोध में तूफानी प्रदर्शन हुआ। तब से जब तक कमीशन भारत में रहा, उसके सदस्यों के कानों में ‘साइमन गो बैक’ का नारा गूंजता रहा और उन्हें सड़क पर निकलते ही काले झंडों और जुलूस-प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा। पूरे भारत ने उसका बहिष्कार किया। बहिष्कार इतना पूर्ण था कि गांधी ने कमीशन का कभी नाम तक नहीं लिया। उनके लिए उसका अस्तित्व ही नहीं था। ‘हालांकि लार्ड साइमन ने समझौते की खूब कोशिश की। लार्ड इरविन ने भी प्रलोभन दिए और मिन्नतें कीं, परन्तु प्रतिनिधि की हैसियत रखने वाले एक भी भारतीय ने उनसे मिलना नहीं चाहा।’

1928 (3 अक्टूबर)। लाहौर में साइमन कमीशन रेलवे स्टेशन पहुंचा। पुलिस ने जनता के रोष का सामना करने के लिए युद्ध स्तर पर तैयारी की थी। स्टेशन से कोई सौ-दो-सौ मीटर की दूरी पर कांटेदार तार की बाड़ लगाई गयी थी। जैसे ही लाला लाजपत राय, पंडित मदन मोहन मालवीय, डॉ. गोपीचंद भार्गव और मौलाना जफर अली के नेतृत्व में 5000 प्रदर्शनकारियों का जुलूस कांटेदार तार के समीप पहुंचा, वैसे ही पुलिस ने अचानक लाठियां चलाना शुरू कर दिया। आवश्यकता से अधिक उत्साह का प्रदर्शन करते हुए पुलिस अधिकारी स्कॉट ने एक भारी लाठी से लालाजी के सीने पर जोरदार प्रहार किया, जिससे उनके सीने पर गहरी चोट लगी। डाक्टरों की सलाह की उपेक्षा करके लालाजी ने उसी शाम आयोजित एक विराट सभा को संबोधित किया और सिंह-गर्जना की कि ‘इस दोपहर में हम पर पड़ी हर चोट ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत का कील बनेगी।’ लाठियों के घातक प्रहार के बाद सभा में सिंहगर्जना! लालाजी के स्वास्थ्य में अचानक तेज गिरावट आयी और 17 नवम्बर, 1928 को उन्होंने वीरगति प्राप्त की। उनका अंतिम संस्कार रावी नदी के तट पर किया गया। (उसी ऐतिहासिक तट पर, जो दिसम्बर 1929 को पूर्ण स्वराज्य की राष्ट्रीय प्रतिज्ञा का साक्षी बना।)

लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और शिवराम ने पुलिस अधीक्षक जेम्स ए स्कॉट को मारने की योजना बनाई। ठीक एक महीने बाद उन्होंने 17 दिसंबर 1928 को शाम करीब सवा चार बजे अपनी योजना को अंजाम दिया, लेकिन गलत पहचान के चलते स्कॉट की जगह सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन पी़ सांडर्स मारा गया। इस दौरान चानन सिंह नाम का एक हैड कांस्टेबल भी मारा गया जो क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए दौड़ रहा था।

महीनों गुजर गए – पुलिस किसी क्रांतिकारी को पकड़ नहीं सकी। ब्रिटिश हुकूमत पस्त रही। हालांकि भगत सिंह ने लाहौर के विशेष मजिस्ट्रेट को सांडर्स हत्याकांड में अपने और अपने साथियों राजगुरु एवं सुखदेव के खिलाफ धारा 121ए, 302 और 120बी के तहत दर्ज मामले के संबंध में पत्र लिखा। पत्र में भगत सिंह ने अदालत में मुकदमे की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हुए लिखा कि उन्होंने न्यायाधीशों के सामने पेश नहीं होने का फैसला किया है, लेकिन वह चाहते हैं कि यदि ब्रितानिया हुकूमत मुकदमे को निष्पक्ष साबित करना चाहती है तो वह उन्हें उस मौके का मुआयना करने दे जहां ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सांडर्स को क्रांतिकारियों ने मौत के घाट उतारा था।

भगत सिंह ने अपने पत्र में लिखा कि याचिकाकर्ता (आरोपी) अदालत में अपना प्रतिनिधित्व नहीं करने जा रहे, लेकिन यदि सरकार मुकदमे को लेकर निष्पक्ष है तो वह उन्हें कथित घटना के संदर्भ में घटनास्थल (सांडर्स की हत्यावाली जगहों) का मुआयना कराए। उन्हें मौके के मुआयने के लिए उचित व्यवस्था उपलब्ध कराए और गवाहों से भी जिरह करने का मौका दे। जब तक उन्हें जिरह और मौके के निरीक्षण का अवसर नहीं मिलता तब तक मामले की सुनवाई स्थगित रखी जाए। (जारी)