1929 (8 अप्रैल)। अखबारों में छपा– दिल्ली असेम्बली में बम फूटा। असेम्बली हॉल में भगदड़ मच गयी। होम मेम्बर टेबुल के नीचे घुस गए। बम फेंकने वाले नौजवान भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यशाही का नाश हो’ के नारे लगाए, पर्चे गिराए और बहादुरी के साथ आत्मसमर्पण किया। सर जॉन साइमन ने विशिष्ट जनों की गैलरी में बैठे हुए इस कांड को देखा। सदन में उस वक्त मोतीलाल नेहरू, मो. अली जिन्ना, एन. सी. केलकर, ए. आर. जयकर आदि राष्ट्रीय स्तर के नेता मौजूद थे।

वाइसराय इरविन उसी दिन केंद्रीय असेम्बली में दो बिल पेश करने वाले थे। दोनों बिल ब्रिटिश शासन के प्रति किसी भी विरोध का गला घोंटने के मकसद से तैयार किये गए थे। पहला, ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ (सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक) - सरकार को किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाए जेल में रखने की शक्ति देने के लिए बनाया गया। दूसरा, ‘ट्रेड डिस्प्यिूट बिल’ (औद्योगिक विवाद विधेयक) – जिसका मकसद था श्रमिक संगठनों को हड़ताल करने से रोकना।

दर्शक दीर्घा से पत्तियों की मानिंद बरसे पर्चे में उन दो बिलों सहित आने वाले अधिवेशन में ‘अखबारों द्वारा राजद्रोह रोकने का कानून’ (प्रेस सैडिशन एक्ट) जनता पर कसे जाने धमकी के विरुद्ध सरकार को चेतावनी थी। पर्चा का पहली पंक्ति थी – ‘बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज की आवश्यकता होती है’, प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलें के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।’ पर्चे में साइमन कमीशन के उल्लेख के साथ यह भी कहा गया कि ‘… दमनकारी कानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं।’

परचा का पूरा पाठ इस प्रकार था :

‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिाक सेना’

नोटिस

‘बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज की आवश्यकता होती है’, प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलें के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।

पिछले दस वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं और न ही हिंदुस्तानी पार्लियामेंट पुकारी जानेवाली इस सभा ने भारतीय राष्ट्र के सिर पर पत्थर फेंककर उसका जो अपमान किया है, उसके उदाहरणों को याद दिलाने की आवश्यकता है। यह सब सर्वविदित और स्पष्ट है। आज फिर जब लोग ‘साइमन कमीशन’ से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आंखें फैलाए हैं और इन टुकड़ों के लोभ मं आपस में झगड़ रहे हैं, विदेशी सरकार ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक’ (पब्लिक सेफ्टी बिल) और औद्योगिक विवाद विधेयक’ (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर ही है। इसके साथ ही आनेवाले अधिवेशन में ‘अखबारों द्वारा राजद्रोह रोकने का कानून’ (प्रेस सैडिशन एक्ट) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करने वाले मजदूर नेताओं की अंधाधुंध गिरफ्तातारियां यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है।

राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व की गंभीरता को महसूस कर ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ’ ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है। इस कार्य का प्रयोजन है कि कानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाए। विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करे, परंतु उसकी वैधानिकता की नकाब फाड़ देना आवश्यक है।

जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेंट के पाखंड को छोड़ कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरुद्ध क्रांति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम ‘सार्वजनिक सुरक्षा’ और ‘औद्योगिक विवाद’ के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं।

हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्ज्वल भविष्य में विश्वास रखते हैं, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके। हम इंसान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी है। परंतु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है।

इंकलाब जिंदाबाद!

ह. बलराज

कमांडर इन चीफ

बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने भगदड़ का फायदा उठाते हुए भाग निकलने की कोई कोशिश नहीं की। वे वहीं खड़े रहे। पुलिस के सिपाही भय से दूर खड़े थे कि कहीं उनके पास कोई हथियार न हों। उन्होंने आश्वस्त किया कि उनका उद्देश्य सिर्फ शासकों का कान खोलने के लिए धमाका करना था। भगत सिंह ने पुलिस को अपनी स्वचालित पिस्तौल सौंप दी। (गुलामी बरतने की आजादी से लैस अखबारों के मुताबिक़ इसी से उन्होंने सांडर्स के शरीर में गोलियों भेदी थीं।)

‘द हिंदुस्तान टाइम्स’, नई दिल्ली ने तीन पंक्तियों की सुर्खी के साथ पूरी खबर दी:

असेंबली में बम और पिस्तौल ने भगदड़ मचाई, दो बम फटे, पिस्तौल से गोलियां दागी गईं।

महिला दीर्घा में स्त्रियों की चीख-पुकार ; सर फोमनजी दलाल गंभीर रूप से घायल, दो गिरफ्तार। सर जॉर्ज शूस्टर, मि. एस. सी. गुप्ता और दूसरे अधिकारियों को मामूली चोटें।

उन दिनों जनता की आजादी का अपहरण करने वाले ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक’ के विरुद्ध गहरा रोष व्याप्त था। केंद्रीय विधानसभा में उस विधेयक पर विचार-विमर्श चल रहा था। विट्ठल भाई पटेल केंद्रीय विधानसभा के अध्यक्ष थे। उन्होंने अध्यक्षता करते हुए यह व्यवस्था दी थी कि केंद्रीय विधानसभा में ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक’ पर होने वाली चर्चा क्रांतिकारियों के विरुद्ध चलाए जा रहे मेरठ षड्यंत्र मुकदमे की सुनवाई को प्रभावित कर सकती है। अतः इस विधेयक पर किसी प्रकार की बहस नहीं की जा सकती।

यह भारत में साइमन का अंतिम बड़ा अनुभव था। वह और उनका कमीशन उसी महीने (अप्रैल, 1929) इंग्लैंड लौट गया।

केंद्रीय असेम्बली में (दीर्घा में बैठे साइमन के सामने) बम फटने की खबर देश में कहानी बनकर घर-घर फैल गयी। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के नाम बच्चे-बच्चे के जबान पर आ गए ( मीठापुर-जक्कनुपर, पटना में बटुकेश्वर दत्त और उनके छोटे भाई का परिवार रहता था। 1963 में वह बिहार विधान परिषद के सदस्य बने। उनके निवास-स्थान की गली ही बटुकेश्वर दत्त लेन कही जाती है।)। भगत सिंह का यह धमाका था - बहरों को सुनाने के लिए भारत की गूंगी जनता की चीख जैसा। थोड़े ही दिनों में उनके फोटो भी देश के गांव-गांव और गली-गली में पहुंच गए। 12 जून, 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी - 8 अप्रैल को किए असेम्बली में दो बम विस्फोट के लिए।