बंधुओ, एक निवेदन के साथ निम्नांकित आलेख ‘जनराज्य या हिंदूराज्य’ मैं मुख्यतः बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार, झारखंड के मुख्यमंत्री श्री रघुवर दास, झारखंड के केबिनेट मंत्री श्री सरयू राय सहित दिल्ली की गद्दी पर विराजमान उन शासक-मित्रों को भेजना चाहता था, जो आज भी बिहार आन्दोलन-74 में ‘जेपी के सैनिक’ होने के दावे के साथ सत्ता पर काबिज हैं. वह भी इसलिए, क्योंकि मैं इस मुगालते आज भी हूं कि ये ‘शासक’ मुझे ‘मित्र’ रूप में पहचानने से शायद इनकार कर दें, लेकिन मुझे ‘जेपी के हजारो-लाखो लोग’ में से एक पुराना ‘परिचित’ कहने-मानने से इनकार नहीं करेंगे.

मैं जेपी का निम्नांकित आलेख बहुत पहले ही उनको भेजना चाहता था, जिसका हम-आप – हजारो साथियों ने (और संभवतः उक्त सत्ताधीशों ने भी) बिहार आन्दोलन के दौरान संघर्ष-कार्यालयों की सभा-गोष्ठियों में और इमरजेंसी में ‘राष्ट्र-द्रोह’ (देश-द्रोह!) के केस में जेल-बंद होकर न जाने कितनी बार पाठ किया था और जमकर विमर्श किया था.

लेकिन ढाई-तीन साल से भेजा नहीं, हालांकि इस बीच ‘इंदिरावाद के जूतों में मोदीवाद के पांव समाने’ जैसी कई घटनाओं-दुर्घटनाओं के मैं और मेरे जैसे सामान्य जेपी के लोग दर्शक-साक्षी बने. क्योंकि इसके बावजूद, हम सोचते रहे, ये बेचारे सत्ता-राजनीति के नए और कच्चे खिलाड़ी हैं, खेल के नियमों से अनजान हैं इसलिए जब-तब ‘फाउल’ कर रहे हैं. ऐसा वे जान-बूझ कर नहीं कर रहे. सो मैं और अन्य ‘जेपियाइट’ मित्र उनको सत्ता-राजनीति के उन नियमों की, जिन्हें बिहार आन्दोलन के दौरान हमने सीखा था और आगे भी उस पर अमल करने का सामूहिक संकल्प किया था, याद दिलाकर तसल्ली करते रहे. लेकिन अब हम इस भ्रम में पड़ने से खुद को बचा नहीं पा रहे कि ये शासक देश-प्रदेश के सेनापति बनकर ‘जेपी के सैनिक’ नहीं रहे!

इसलिए मैं उनको जेपी का यह आलेख प्रेषित कर एक निवेदन कर रहा हूं कि वे हमारे ‘भ्रम’ को गलत साबित करें. इस ‘आलेख के आलोक में’ अगर वे कोई ‘प्रतिक्रिया’ व्यक्त नहीं करेंगे, या इस ‘आलेख’ पर कोई ‘कारवाई’ नहीं करेंगे, चुप रहेंगे, तो जाहिर है, हमारा ‘भ्रम’ सही साबित हो जाएगा.

जेपी का आलेख ‘जनराज्य या हिंदूराज्य’ लंबा है. इसलिए मैं इसे चार किस्तों में बांटकर प्रस्तुत कर रहा हू.

‘जनराज्य या हिंदूराज्य’ – 1

(जेपी)

एक लंबे अरसे के बाद आपके सामने आने का मौका मिला है. इस अर्से में देश में बड़ी-बड़ी घटनाएं घटी हैं. उन घटनाओं का क्या महत्व है, मैं नहीं जानता कि आप में से कितने भाई उसे समझते होंगे. उन घटनाओं ने देश के सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा कर दिया है. 15 अगस्त को देश आजाद हुआ. बड़ी कशमकश के बाद हमने आजादी हासिल की आपस में जो भी झगड़े हों, प्रवृत्तियां हों, रास्ते हों लेकिन यह आजादी बराबर कायम रहेगी, यह आमलोगों का ख्याल है, किंतु, पिछले हफ्ते की घटनाओं ने सवाल पेश किया है कि यह आजाद हिंदुस्तान कितना दिन जिंदा रह सकेगा? क्या यह जिंदा रहेगा भी कि नहीं? मैं मानता हूं, सबको इस खतरे का अनुभव नहीं हो सकता. आजाद भारत के जीने पर भी संशय हो, इतनी दूर तक अभी बहुतों ने नहीं सोचा है. लेकिन, यदि आप हालत को समझेंगे और सोचेंगे, तो आप भी उसी नतीजे पर आएंगे.

कुछ दिन पहले मैं दिल्ली गया था - रेल और खान मजदूरों का सवाल लेकर. उन्हीं दिनों दिल्ली में दंगा चल रहा था. मैंने जो हालत देखी, जो तस्वीर देखी, उससे मैं बहुत चिंतित हुआ, परेशान हुआ. सिर्फ दुखी ही नहीं हुआ, देश के अंधकार में भविष्य की कल्पना कर स्तब्ध रह गया. अखबारों में आपने सिर्फ यह पढ़ा होगा कि पंजाब और दिल्ली में दंगे हो रहे हैं. पश्चिमी पंजाब में जो जुल्म हुए, उसकी प्रतिक्रिया पूर्वी पंजाब में हुई और वही फिर बढ़ते-बढ़ते दिल्ली पहुंचेगी. लेकिन, मेरे साथ आप दिल्ली में होते तो आप भी अपनी आंखों से देखते कि सिर्फ हिंदू-मुस्लिम दंगा ही नहीं हो रहा था, उस से भी खतरनाक चीज दिल्ली की सड़कों पर हो रही थी. वहां आजाद हिंदुस्तान के तुरत लगे हुए पौधे की जड़ पर कुल्हाड़ी चला रही थी. आजाद हिंदुस्तान की नींव हिल रही थी. सड़कों पर फौज के सिपाही खड़े हैं, मशीनें हैं, फौजी लारिया हैं, राइफल लिये सैनिक है. लेकिन, उनके सामने कत्ल हो रहा है और वे तमाशा देख रहे हैं. हुकूमत का हुक्म था जहां कहीं लूट होते देखो, तुरंत गोली चलाओ. हत्यारों को गोली का निशाना बनाने से मत चूको. यह हुक्म था हिन्दोस्तान के प्रधानमंत्री का, उनकी कैबिनेट का. किंतु, उन्हीं के नौकर खुलेआम उनकी मुखालफत कर रहे थे, आज्ञा का उल्लंघन कर रहे थे. आप ही सोचिए, जिस हुकूमत का हुक्म उसके सैनिक मानने को तैयार नहीं, कितने दिनों तक चल सकेगी?

मेरे मन में यह प्रश्न हुआ - नब्बे वर्षों से आजादी की जो लड़ाई हमने लड़ी, सन् सत्तावन से ही जो बड़ी-बड़ी कुर्बानियां हम करते आए हैं, हमारी बहनों ने जो बेइज्जतियां उठाईं, हमारे भाइयों ने माता की वेदी पर अपनी जानों की जो बलि चढ़ाई, सरदार भगत सिंह और उसके साथियों ने, बंगाल के क्रांतिकारियों ने, बिहार के बैकुंठ शुक्ल ने, कहां तक गिनाऊं, हजारों नौजवानों ने जो अपने को देश पर निसार कर दिया, मिटा दिया ; क्या उसका हस्र यही होने वाला था? लाखों आदमी वर्षों से जेलों में सड़ते रहे. गांव के गांव लुट गए, बर्बाद हुए ; क्या उसका नतीजा यही होना था? हमने अपने खून से जिस पौधे को सींचा, उस पौधे पर इस तरह हमारी आंखों के सामने ही हमले हों. आप कहिएगा, फ़ौज ने हुक्म नहीं माना तो क्या हुआ, इससे आजादी पर कौन-सा खतरा? लेकिन, कल्पना कीजिए, अगर दिल्ली की हालत पटना, नागपुर, मद्रास, कटक आदि जगहों में हो, तो फिर देश की हालत क्या हो जाय? सौ-डेढ़ सौ वर्षों तक अंग्रेजी हुकूमत रही, सब लोग उसका हुक्म सर झुकाकर मानते रहे, राजे-महाराजे भी सर झुकाते रहे। लेकिन, उस हुकूमत के खतम होने के बाद अगर दिल्ली में कोई हुकूमत न रह जाय, जो देश भर में शान्ति कायम रख सके, उसके मुलाजिम, उसके सैनिक उसका हुक्म न मानें, तो क्या फिर सारा देश टुकड़े-टुकड़े में बंटने से बच सकता है? मुगलों का राज एक शक्तिशाली राज्य था। किन्तु, ज्यों ही उस राज्य की नींव कमजोर पड़ी, सारे देश में अराजकता फैल गई; हिन्दू, मुसलमान, मराठे एक दूसरे से और आपस में भी लड़ने लगे। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने विदेशियों के लिए हमारे देश का रास्ता खोल दिया। यदि दिल्ली में एक मजबूत केन्द्रीय राज न हो, तो फिर मुगलों का इतिहास हमारे देश में दुहराया जायगा। अगर सारी फौज उस सरकार की बात न सुने, उसकी आज्ञा को न माने तो क्या हालत हो? यह सोचिये, क्या वह फौज देश की रक्षा कर सकेगी? क्या कोई इन्तजाम रह जायेगा? खुद सेना ही टुकड़े-टुकड़े में बंट जायगी। सिक्ख सैनिक पटियाला का पल्ला पकड़ेंगे, गुरखे नेपाल का, राजपूत जयपुर का और मराठे कोल्हापुर का। उनकी तरफ से वे लड़ेंगे। एक होड़ मच जाएगी कि कौन बैठे दिल्ली के तख्त पर। मराठे कहेंगे, अंग्रेजों ने हमसे राज्य लिया, दिल्ली पर हमारा दावा है; राजपूत कहेंगे, हम तो सूर्यवंशी हैं, हिन्दोस्तान का राजमुकुट हमारे लिए सुरक्षित रहना चाहिए। सिक्खों के, गढ़वालियों के अलग-अलग दावे होंगे और इसी होड़ा-होड़ी में देश बर्बाद हो जायगा। याद रखिए, अगर मजबूत राज न हो, तो गुंडों का राज होकर रहेगा। जिसकी लाठी, उसकी भैंस की हुकूमत कायम होकर रहेगी।

दंगों में जिन लोगों ने भाग लिया था उनके सामने एक तस्वीर थी, बड़ी लुभावनी तस्वीर। वह तस्वीर थी हिन्दू राज्य कायम करने की। यह सुनने में अच्छा लगता है। लेकिन, सोचिए तो रहस्य खुले। हिन्दू राज क्या है? उसमें सिक्ख क्या रहेंगे, हरिजन क्यों रहेंगे, पारसी और ईसाई क्यों रहेंगे? हिन्दूओं में भी किसका राज्य - मराठों का या राजपूतों का?

हिन्दू राज एक धोखा है, यह सर्वनाश का रास्ता है। जो हिन्दू राज की बात करते हैं, वे हमें आपस में झगड़े में फंसाना चाहते हैं। आज हिन्दोस्तान का एक छोटा-सा टुकड़ा निकल गया है, हम-आप सभी चिन्तित हैं। लेकिन, तो भी एक बहुत बड़ा हिस्सा एक साथ है। अगर वह हिस्सा भी टुकड़े-टुकड़े हो गया, तो याद रखिए, हमारे सारे बलिदान निष्फल हो जायेंगे। हमारे शहीद आसामान से आंखों में आंसू भरकर हमारी और देखेंगे और हमें अभिशाप देंगे - हमने, ओ कपूतो, क्या इसी के लिए अपनी जान की कुर्बानी की? तिरंगे झंडे की छाया में हमने गोली खाई, डंडे खाये, हम मिट गये; लेकिन, उसकी शान नहीं मिटने दी कि समूचे देश में इस तिरंगे के नीचे एक राज्य कायम हो, पूर्ण स्वराज्य कायम हो। और तुम ऐसे नालायक निकले कि हमारे देश को टुकड़ों में बंटवा दिया! अब भगवा झंडा ले के क्या इस बड़े टुकड़े को तार-तार कर देना चाहते हो? बताइये, अपने शहीदों की इस उक्ति का हम क्या जवाब देंगे?

(दूसरी किस्त अगले अंक में)