मैं ‘सामाजिक दूरी’ (सोशल डिस्टेंसिंग) की जगह ‘शारीरिक दूरी’ के साथ ‘सह-अस्तित्व’ शब्द लाना चाहता हूँ. मेरा निवेदन है कि आज प्रत्येक व्यक्ति स्वयं के अलावे, मजदूर, विस्थापित, खासतौर पर गरीब, वृद्ध और एकल स्त्री के लिए जिम्मेवार हो जाये.

चीन के वुहान शहर में 57 वर्षीय महिला वेई गुझियान को 10 दिसंबर, 2019 के यहाँ के एक अखबार में प्रकाशित लेख में कोरोना पीड़ित पहली महिला बताया गया है.

इसके साथ ही कोरोना से प्रभावित पहले ग्रुप में 27 मरीज थे. इनमें से 24 सी फूड मार्केट में रोगग्रस्त हुए थे. कोरोना वायरस से ग्रसित चीन का अनुभव सामने आ जाने के वाबजूद शेष देशों ने जनवरी 2020 तक इस ओर ध्यान नहीं दिया. परंतु धीरे-धीरे इस वायरस की भयावहता का एहसास होने लगा, चिंता बढ़ने लगी और इस बीमारी का प्रभाव क्रमशः यूरोप, अमेरिका तथा अफ्रीकी देशों में फैलता चला गया. भारत सरकार का ध्यान खास तौर पर 10-11 मार्च के बाद गया. तब ज़ब एशियाई देशों को एलर्ट जारी किया गया.

भारत में तो 15-16 मार्च तक कई धार्मिक संस्थाओं में जलसे-जुटान होते रहे. इसके पूर्व भारत सरकार चीन, अमेरिका और इटली सहित कई देशों से भारतीय नागरिकों को वापस लाने तथा उनकी जांच करके घर भिजवाने की व्यवस्था में लगी रही. अंततः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक 19 मार्च की रात आठ बजे टीवी पर देश के नाम अपने सम्बोधन में 22 मार्च को 14 घंटे के लिए देशव्यापी जनता कर्फ्यू की घोषणा कर दी. इसके बाद 23 मार्च को दिल्ली (राज्य) सरकार और बिहार की सरकार (दोनों ) ने 31 मार्च तक लाॅकडाउन घोषित कर दिया. उसी दिन शाम तक झारखंड सरकार ने भी ऐसी घोषणा कर दी. 24 मार्च की रात आठ बजे पुनः प्रधानमंत्री देश से मुखातिब हुए और चार घंटे बाद, यानी 25 मार्च से 14 अप्रैल तक सम्पूर्ण भारत में 21 दिनों के लिए लाॅकडाउन की घोषणा कर दी. इस घोषणा में सरकार की तत्परता, आकस्मिकता, अतिरंजना और इसके नतीजों के प्रति अज्ञानता और आम जन को होनेवाली तकलीफों के बारे में संवेदनहीन लापरवाही, जिसे निर्दयता भी कहा जा सकता है- सभी बातों का समावेश था.

मेरे ख्याल से इनसे कम जिम्मेदार वो लोग भी नहीं थे, जो अलग-अलग पक्षों से इस फैसले की नुक्ताचीनी कर रहे थे.

भारत की वित्त मंत्री ने लाॅक डाउन के दूसरे दिन ही 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की. इन घोषणाओं के तहत किसानों के खाते में 2000/- रु और अगले तीन महीनों के लिए इतनी ही मदद की घोषणा की गई. साथ ही सेल्फ हेल्प ग्रुप की प्रत्येक महिला के खाते में प्रति माह 500 रु डाले जाऐंगे एवं असंगठित मजदूरों के लिए भी राहत की घोषणा की गई. इसके साथ प्रत्येक बीपीएल कार्डधारी परिवार को नि:शुल्क कुछ अनाज और साथ में तीन रुपये किलो की दर से चावल और दो रुपये किलो की दर से गेहूं प्रदान करने की घोषणा भी की गई. इसी तरह अमेरिकी सरकार ने भी 50 अरब डाॅलर के सहायता पैकेज का एलान किया.

अन्य बातों के अलावा मेरा ध्यान इस ओर है कि सरकार ने अपना खजाना खोल दिया है . इससे समस्या कि गंभीरता को प्रमाण भी मिलता है. इसी तरह जो कुछ जरुरी काम छूट रहा है, उसे चिन्हित करना एकदम निरर्थक भी नहीं रह जाता है.

इस सन्दर्भ में एक पक्की समीक्षा स्वामिनाथन अंकलेश्वर अय्यर ने 29 मार्च को अपने संडे कॉलम में किया कि केंद्र सरकार के राहत को तीन गुणा तक करने कि जरुरत है. उनके अनुसार यह राहत घोषणाएं सकल घरेलु उत्पाद के एक प्रतिशत से भी कम है.

मेरे लिए इसका अर्थ यह हुआ कि सरकार के राहत को ऊंट के मुँह में जीरा कह कर तिरस्कार लायक नहीं कहा गया.

रोग से लड़ने के मामले में डाक्टरों की फौज शुरुआती अज्ञानता, सहायक मशीनों एवं दवाओं के अभाव से क्रमशः बाहर निकलते हुए धीरे-धीरे ज्यादा विश्वास प्राप्त कर रही है. भारत के कई मेडिकल प्रोडक्ट ने तो प्रतिमान भी बनाये हैं.

ऐसे में नागरिक और नागरिक समाज के रूप में हमारी भूमिका बढ़ जाती है. एक भूमिका है, व्हिसिल ब्लोअर (गलतियों की तरफ ध्यान दिलाने) की है. परंतु उससे बड़ी भूमिका मानवता के संकट की इस घड़ी में जागरूक नागरिक होने की है. अर्थात नुक्ताचीनी, दोषारोपण और पक्ष-प्रतिपक्ष के थुकम-फजीहत से बाहर निकलना है.

अर्थव्यवस्था की भीषण गिरावट और सेंसेक्स के आकलन में हम सिमटे नहीं रहें. सभी लोगों के अलावा खासतौर पर दैनिक मजदूरों और उनके आश्रितों के लिए आय का भारी संकट है. इसको सरकारों की कम समर्थ और भ्रष्ट अर्ध भ्रष्ट मिशनरी के भरोसे छोड़ कर चलना उचित नहीं है. और बहुत शिद्दत के साथ असंगठित मजदूर, मजदूर, खेतीहर श्रमिक, के साथ कई घुमन्तु जातिओं, अशक्त और उजाड़ रहे समुदायों, बेरोजगारों, वृद्ध और खासकर एकल स्त्रिओं की खबर लेनी होगी.

जिसकी खैर लेने की बारी आये, उसे मदद करने के साथ ही, उनके लिए स्थानीय न्याय को और सरकार की एजेंसिओं को रडार पर लेने को जरुरत होगी.

अनिष्ट के इस दौर में सभी तरह के खर्चे घटे हैं. प्रकृति और पर्यावरण का बोझ घटा है. इससे अलग भाग-दौड़ की जिंदगी जीने वालों के लिए अवकाश का मौका एक साथ आया है. निसर्ग की सफाई भी हुई है

साथ ही मानवता के जितने स्थापित और आधुनिक मूल्य हैं, सबकी परीक्षा की घड़ी आ गई है. स्त्री-पुरुष भेद, बलात् और स्त्री उत्पीड़न के वातावरण को नया परिवेश मिला है. दुनिया भर में प्रचलित अलग-अलग ढंग की अस्पृश्यता (छुआछूत) को भी नया कुछ देखने को मिल रहा है.

मैं अपनी बात को समाप्त करते हुए ‘सामाजिक दूरी’ (सोशल डिस्टेंसिंग) की जगह ‘शारीरिक दूरी’ के साथ सह-अस्तित्व शब्द लाना चाहता हूँ. मेरा निवेदन है कि आज प्रत्येक व्यक्ति स्वयं के अलावे , मजदूर, विस्थापित, खासतौर पर गरीब, वृद्ध और एकल स्त्री के लिए जिम्मेवार हो जाये.

करोना संकट ने सारे प्रतिमान बदले हैं. इससे लड़ पाने में भारत की पत्रकरिता, खास कर टीवी मिडिया का एक हिस्सा ओछा साबित हों रहा है. परन्तु संतोष का विषय यह है, की इस पर विजय पाने में मानवीय कोशिशें, कई मिसाल बेमिसाल बना रही हैं.अर्थव्यवस्था को पुनर्संगठित करने में भारत और राज्यों की सरकारों को काफ़ी कुछ करना पड़ेगा.