देखा जाये तो सोशल डिस्टेंसिंग हम भारतीयों के लिए कोई नई चीज नहीं है. हम सदियों से इसके कायल रहे हैं और इसके पोषक भी रहे हैं. हमने तो अपना सामाजिक ढ़ांचा ही ऐसा बना लिया कि सामाजिक दूरी बनी रहे. हमारे पूर्वजों ने जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि का भेद करते हुए इस सामाजिक दूरी की एक पुख्ता व्यवस्था ही बना रखी है.

कोरोना वायरस के आगमन के साथ ही कुछ अंग्रेजी शब्द बहुत प्रचार में आ गये हैं. इनका अर्थ मालूम न भी हो, हम इन शब्दों का प्रयोग आवश्यक— अनावश्यक रूप से करने लगे हैं. जैसे— सोशल डिस्टेंसिंग, क्वरेंटाईन, आइसोलेशन बगैरह वगैरह. अब सोशल डिस्टेंसिंग को ही लें, इसका हिंदी में शाब्दिक अर्थ निकाला जाये तो होगा— सामाजिक दूरी. इस सामाजिक दूरी को कोरोना का इलाज माना जा रहा हैं क्योंकि अब तक इसका कोई सटीक इलाज व दवा नहीं निकला है. एक आदमी से दूसरे आदमी को दूर रख कर इसका बचाव हो सकता है. यह उपदेश हमारे नेता, अभिनेता, गायक और खिलाड़ी आदि कोरोना प्रीचर्स हर घड़ी टीवी स्क्रीन पर आ कर हमे देते रहते हैं. इस उपदेश के लिए इन्हें शायद इसलिए चुना गया, क्योंकि ये हमेशा समाज से एक दूरी बनाये रखते हैं. वे अपने अनुभव से सोशल डिस्टेंसिंग कैसे बना कर रखा जाये, बताते रहते हैं.

देखा जाये तो सोशल डिस्टेंसिंग हम भारतीयों के लिए कोई नई चीज नहीं है. हम सदियों से इसके कायल रहे हैं और इसके पोषक भी रहे हैं. हमने तो अपना सामाजिक ढ़ांचा ही ऐसा बना लिया कि सामाजिक दूरी बनी रहे. हमारे पूर्वजों ने जाति, धर्म, रंग, लिंग आदि का भेद करते हुए इस सामाजिक दूरी की एक पुख्ता व्यवस्था ही बना रखी है. उंची जाति का नीची जातियों से, अमीर का गरीब से, स्त्री का पुरुष से, गोरों का कालों से, एक धर्म का दूसरे धर्म से हमेशा से ही दूरी बनी हुई है.

इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो कोरोना से बचने के लिए अब जो सोशल डिस्टेंसिंग की बात की जा रही है, वह मुख्यत: उस सुरक्षित क्षेत्र के लोगों के लिए है जो उंची जाति के हैं, अमीर हैं, खाने को भोजन है और रहने को घर है. बेघर, हर दिन मजदूरी कर पेट भरने वाले लोगों के सोशल डिस्टेंसिंग की बात न सरकार ने सोचा है, न समाज ने.

सामाजिक दूरी के लिए जरूरी लॉक डाउन की जब सरकार ने घोषणा की तो एक गरीब जो ज्यादातर निम्न जाति के हैं, हमेशा उपेक्षित रहे हैं, उन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. ये दलित जिनकी सेवायें तो अगड़ी जाति वाले लेते हैं, लेकिन उनके आगमन के आहट मात्र से घरों में छिप जाते थे कि उनका छूत न लग जाये. और तो और ये दलित खुद अपने चले हुए रास्ते पर पानी छिड़क कर अपनी छूत से उंची जाति के लोगों को बचाते रहे. गांधी बाबा हों या बाबा साहब अंबेदकर के प्रयासों से ये दलित हरिजन तो कहलाये, लेकिन उंची जातियों से सामाजिक दूरी को कम नहीं कर पाये.

लॉक डाउन लगते ही अन्न, जल तथा रहने की जगह छिन जाने पर ये बिलबिला कर लाखों की संख्या में सड़क पर निकल पड़े. उनका लक्ष्य था उनका सुदूर गांव, जहां उनके अपने थे. सरकार तो इससे चिंतित हो ही गयी, सरकार की चिंता का कारण था घर में बंद सोशल डिस्टेंसिंग वाले लोगों के लिए, कहीं इनका संक्रमण घर में बंद लोगों को न लग जाये. सड़क पर के लाखों लोगों को पुलिस के हवाले कर दिया गया जो इन्हें जहां तहां रोक कर क्वारेंटाईन के नाम पर जानवारों की तरह एक जगह डंप कर दिया. रासायनिक छिड़काव कर उनके शरीर के वायरस को समाप्त किया गया. एक जून भोजन के लिए घंटो लाईन में खड़ा किया गया और बात न मानने पर डंडे भी बरसाये.

सरकार से यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि सोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर लाखों लोगों को जीवन की बुनियादी जरूरतों से वंचित रख कर वह कोरोना को कितना रोक पायी है. अब तक कोरोना के जितने मरीज पाये गये हैं, वे किस वर्ग से आते हैं? सड़क पर के इन लाखों लोगों तक हमारी स्वास्थ व्यवस्था पहुंच पायी है क्या? कोरोना के संक्रमण में इनका क्या योगदान है? अन्यथा इतने लोगों को सड़कों पर कष्ट में छोड़ देना अमानवीयता है.

सोशल डिस्टेंसिंग के नाम साधन संपन्न लोगों के घरों तक सुविधाएं पहुंचायी जा रही है, बाजार को जिंदा रखा जा रहा है, आपरेशन टेबल पर पैसे न मिलने पर मरता हुए छोड़ जाने वाले डाक्टर अब हमारे लिए कोरोना वारियर्स हो गये, डाक्टर या पुलिस की ज्यादतियों को भुला कर हम उन्हें कोरोना के सिपाही कह सकते हैं और इस युद्ध के सेनापति प्रधानमंत्री की विश्व प्रशंसा पर तालियां भी बजा सकते हैं, लेकिन अपने श्रमशीलता से इस सिस्टम को बनाये रखने वाले श्रमिक आज सबसे अधिक उपेक्षित हो गये है और यह सवाल बना ही हुआ है कि यह सोसल डिस्टेंसिंग है क्या? अमीर गरीब में भेद भाव करना, एक धर्म के लोगों के लिए संवेदनहीनता की हद तक घृणा पालना या मुट्ठी भर लोगों की हितों की रक्षा करना. इसे हम सोसल डिस्टेंसिंग न कह कर ह्यूमन किलिंग या मानवता की हत्या कहना ज्यादा उपयुक्त नहीं होगा?