श्रीनिवास: कोई शक नहीं कि सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा प्रताड़ित कन्हैया कुमार आज प्रतिरोध और बदलाव की चाहत का एक प्रखर चमकदार जान पहचाना चेहरा है. तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद कन्हैया की आवाज संसद में गूंजे, यह बहुतों के साथ मुझे भी अच्छा लगेगा. बावजूद इसके बेगूसराय (बिहार) में भाकपा प्रत्याशी के तौर पर भाजपा और गंठबंधन (राजद) को चुनौती दे रहे कन्हैया का खुले मन से समर्थन करने में एक हिचक हो रही है. बात अटपटी है, मगर अतार्किक नहीं है. विचार करें.
सबसे पहले तो यह कि उम्र के लिहाज से कन्हैया यदि इस बार सब्र दिखाता, तो उसका कद और बढ़ जाता. साथ ही एक क्षेत्र में सिमट कर रह जाने के बजाय भाजपा के खिलाफ प्रचार अभियान में वह पूरे देश में प्रभावी भूमिका निभा सकता था.
दूसरे, यदि कोई व्यक्ति या दल भाजपा को पराजित करना अपने सबसे बड़ा और पहला लक्ष्य कहता है, तो उसे किसी तरह भाजपा प्रत्याशी की जीत में योगदान करने का ‘श्रेय’ लेने से बचना चाहिए. लेकिन कन्हैया और उसकी पार्टी (भाकपा) ने इसका ख्याल नहीं किया. माना कि महागंठबंधन (कांग्रेस-राजद आदि) को बेगूसराय पर भाकपा के दावे पर विचार करना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो अप खीझ में भाजपा की जीत सुनिश्चित करेंगे? याद रहे पिछले संसदीय चुनाव में बेगूसराय में राजद प्रत्याशी तनवीर हसन, जो इस बार भी मैदान में हैं, तीन लाख अस्सी हजार के करीब मत लेकर महज चालीस हजार मतों के अंतर से पराजित हुए थे. जबकि भाकपा प्रत्याशी को महज दो लाख मत मिले थे. ऐसे में राजद वह सीट छोड़ दे, ऐसी अपेक्षा भी क्यों की जानी चाहिए थी?
तीसरे, मौजूदा त्रिकोणीय मुकाबले में अधिक सम्भावना या आशंका तो यही है कि राजद और भाकपा के बीच भाजपा विरोधी मतों का ही बंटवारा होगा, जो भाजपा के पक्ष में जा सकता है. कुछ लोग कयास लगा रहे हैं कि क्या पता कन्हैया (जातीय कारणों से) भाजपा का ही वोट काट दे. यह दूर की कौड़ी है; और तय है कि इस रणनीति के तहत तो कन्हैया खड़े नहीं ही हुआ है. केंद्र सरकार, दिल्ली पुलिस और भाजपाइयों की गली-गलौज ने अचानक कन्हैया को स्टार बना दिया. मीडिया ने भी खूब उछाला. और उसमें महत्वाकांक्षा जग गयी, जो न जगती तो अभी के चुनावी समर में भाजपा को अधिक नुक्सान पहुंचा सकता था. वह अच्छा, धारदार बोलता है. सुलझे हुए ढंग से अपनी बात रखता है. मगर उसकी इन खूबियों का कोई उपयोग देश स्तर पर नहीं हो पा रहा है, क्योंकि कन्हैया बेगूसराय में फंसा हुआ है.
खबर भी यही मिल रही है कि कन्हैया तीसरे स्थान पर चल रहा है. यदि उसके स्थिति सुधर भी गयी, तो किसकी कीमत पर, यह देखने बाकी है.
फिर भी यह कहने करने में कोई संकोच नहीं है कि वह संसद तक पहुंचे तो खुशी होगी, क्योंकि तब यह आरोप तो नहीं लगेगा कि कन्हैया के कारण भाजपा जीत गयी.
कनक: बेगूसराय से अगर कन्हैया नहीं जीतता है, तो यह एक सपने का हार जाना होगा. कन्हैया संघर्ष का प्रतीक नहीं, खुद में संघर्ष है. जिस धारा ने यह स्थापित करने की कोशिश की है कि मुसलिमों और दलितों के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ बोलना देशद्रोह है, भारतीय-हिंदू संस्कृति पर आघात है, कन्हैया ने उनका डट कर मुकाबला किया है. इसीलिए आज वह नजीब और रोहित बेमुला की भी आवाज बन गया है.
तो जातीय व धार्मिक गुना भाग से बीमार हमारी राजनीति अगर किसी भी तर्क से उसके साथ नहीं हो तो घाटा कन्हैया को नहीं, सामाजिक न्याय के संघर्ष को ही होगा. और फिर वर्तमान सत्ता का जो दमनकारी चरित्र उभरा है, जहां सभी भिन्न विचारधारा के लोगों को पुलिस बल से और पालतू मीडिया द्वारा पाकिस्तान परस्त और देशद्रोही घोषित किया जा रहा है; और गुंडों के बल पर शारीरक मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है, संवैधानिक संस्थाओं का इस्तेमाल विपक्षियों के खिलाफ किया जा रहा है, क्या राजद भी इसका शिकार नहीं है? कन्हैया इसके खिलाफ भी बिना डरे डट कर खड़ा है. तो दलीय दलदल से आगे आकर इस लड़ाई को जीतना है तो कन्हैया के साथ आइए.
कम से कम एक सीट तो मुद्दे के नाम की जा सकती है. बाकी बांटते रहिये.