23 मार्च भगत सिंह की शहादत (23 मार्च, 1931) का दिन है। और 25 मार्च पत्रकार गणेशशंकर विद्यार्थी की शहादत का। 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी दे दी गयी और उसके दो ही दिन बाद गणेशशंकर विद्यार्थी ने (25 मार्च, 1931) आजादी की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति दी!

मैं उस दौर के तारीखवार इतिहास को घटनाक्रम में समेटने की कोशिश करूं, इसके पहले यह निवेदन करना प्रासंगिक और उचित लगता है कि मैं यह सब ‘23 मार्च बनाम 25 मार्च’ शीर्षक के तहत क्यों प्रस्तुत कर रहा हूं।

आज आजाद देश के हमारे ‘प्रभु’ (शिक्षा, सम्पत्ति और सत्ता-राजनीति और मीडिया बाजार के संचालक-नियंत्रक) अपने वर्चस्व को स्थापित-सिद्ध करने के लिए आजादी के संघर्ष से जुड़ी कई तिथियों के ‘इतिहास’ में अपने-अपने हिस्से की रोशनी ढूंढ़ने मे लगे हैं। उनकी दिलचस्पी उस इतिहास की वह अंतःसूत्रता खोजने में नहीं है, जिसके बिना आज के सवालों, समस्याओं और चुनौतियों के संदर्भ में ‘भारत’ की गति-दिशा की सही पहचान व सहीपन की पहचान संभव नहीं है। कुछ तारीख-तवारीख से जुड़े उनके विमर्श तो इस कदर अटक-भटक गए हैं कि लगता है, उनका यह अटकाना-भटकना योजनाबद्ध है, वे प्रभुसत्ता पर अपनी पकड़ कायम और मजबूत करने के लिए जनता के इतिहास बोध को भ्रम और संदेह के बीहड़ रास्ते में धकेलने पर तुले हुए हैं। इसके लिए वे गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष, अम्बेडकर, भगत सिंह के इतिहास का स्मरण यूँ करते हैं, जैसे वे उनसे जुड़े पहलुओं का उदघाटन कर रहे हैं। और, उन पहलुओं में भी उनके लिए अब तक अनछुआ पहलू यह है कि आजादी के आंदोलन के उन नेताओं के बीच सैद्धांतिक और वैचारिक ऐसा फासला था, जिसे सिर्फ ‘मतभेद’ कहना इतिहास के साथ अन्याय होगा, वह वस्तुतः न पाटा जा सकनेवाला ‘मनभेद’ का फासला था!

और, हमारे इन आधुनिक प्रभुओं के लिए विमर्श का मुख्य विषय है – आज आजाद देश के ‘विकास’ की गति और दिशा के लिए जरूरी है इतिहास-पुरुषों के बीच के उन फासलों को समझाना और देश की जनता के समक्ष यह सवाल रखना कि हमारे लिए क्या जरूरी है - ‘गांधी और अम्बेडकर कि गांधी या अम्बेडकर? गांधी और नेहरू कि गांधी या नेहरू? नेहरू और पटेल कि नेहरू या पटेल? गांधी और सुभाष कि गांधी या सुभाष? महात्मा और शहीद कि महात्मा या शहीद?

इस योजनाबद्ध अटकाव-भटकाव का खतरनाक संकेत यह है : देश के पुराने प्रभुओं ने गांधी के इतिहास की ‘छील-छाल कर इस कदर छुट्टी कर ही दी, अब नये प्रभू - नयी पीढ़ी के प्रभू अपनी कृपा-दृष्टि से गांधी को यूँ तराशने में लग गए है कि वे पत्थर की मूरत बनकर रह जाएं – उनमें ऐसा कुछ न बचे और न दिखे, जिसे पहचान कर भारत की नयी पीढ़ी अपने पुरखों की तरह उन्हें बरतने लायक मानने की भूल कर बैठे। प्रेरणा के नाम पर सिर्फ पूजा करने के प्रभु-निर्देश का इशारा है कि अब नेहरू, पटेल, अम्बेडकर, और सुभाष सहित भगत सिंह की बारी है। (वर्तमान सत्ता-राजनीति के फटाफट खेल से जुड़े धुरंधर खिलाडियों की उत्तेजना और हर हाल में जीतने की बैचैनी से यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि जल्द ही जेपी भी गांधी-सुभाष—अम्बेडकर-भगत सिंह की कतार में लगा दिए जाएंगे।)

मेरा विनम्र निवेदन है कि इस अटकाव-भटकाव को सही संदर्भों में समझने के लिए हमें एक व्यक्तित्व और उसका कृतित्व मदद कर सकता है। वह है - गणेशशंकर विद्यार्थी। (शायद आप में से कुछ मित्र अटकाव-भटकाव का मेरे अनुमान को सिरे से खारिज करेंगे, इसलिए भी मैं गणेशशंकर विद्यार्थी के शहादत के इतिहास के स्मरण से अपनी बात प्रस्तुत कर रहा हूं।)

गणेशशंकर विद्यार्थी हिंदी पत्रकारिता जगत का ऐसा ‘नाम’ है, जिसके रू-ब-रू हिंदी के हर पत्रकार को अपने पत्रकार-जीवन के किसी न किसी मोड़ पर खड़ा होना पड़ता है। आज 21वीं सदी में भी। जो पत्रकार प्रोफेशन बनाम मिशन के द्वंद्व से बचके निकल चुके हैं और पत्रकारिता में ‘नाम’ कमा रहे हैं, उनकी बात अलग है। जो इस द्वंद्व से गुजरते हुए आज भी पत्रकारिता कर रहे हैं, वे गणेशशंकर विद्यार्थी नाम से परिचित हुए बिना, आकर्षित हुए बिना और उससे टकराये बिना आगे बढ़ ही नहीं सकते। आजादी के बाद जन्मे हिंदी पत्रकारों में से शायद ही कोई इस सत्य से अवगत नहीं होगा कि हिंदी साहित्य के गर्भ से जन्मी हिंदी पत्रकारिता को जिन्होंने घुटना-घुटना चलना, अपने जननी-जनक की अंगुली छोड़कर खुद अपने पैरों पर खड़ा होना व चलना सिखया और अपने होने को खुद रचने के संकल्प एवं उद्यम से लैस किया - ऐसे युगनिर्मता पत्रकारों में सबसे अग्रणी थे गणेशशंकर विद्यार्थी। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को मौलिक विधा के रूप में विकसित किया। उनकी पत्रकारिता के महत्व और प्रभाव के मद्देनजर 1907 के बाद से 1947 तक को हिंदी पत्रकारिता का ‘गणेशशंकर विद्यार्थी युग’ के रूप में पहचाना जाता है।

उन्हीं गणेशशंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता की एक बड़ी विशेषता थी। सबसे बड़ी और समकालीन पत्रकारों में भी सबसे ऊंची के वह पत्रकारिता में ‘गांधी’ को बरतते हुए ‘भगत सिंह’ के साथ थे। उनके लिए पत्रकारिता का मुद्दा ‘गांधी बनाम भगत सिंह’ नहीं था। गांधी के साथ भगत सिंह से समानुभूति - यह उनकी राजनीतिक पत्रकारिता का ‘बेस लाइन’ था। यानी गांधी ‘या’ भगत सिंह नहीं’ बल्कि महात्मा गांधी ‘और’ बलिदानी भगत सिंह उनकी पत्रकारीय भूमिका का आधार सूत्र था।

वह घटना के सच वाले पहलू के साथ खड़े होते थे। उन्हें उस पत्रकारिता से चिढ़ थी जिसमें बातें साफ-साफ नहीं कही जाती थीं। इसलिए गांधी को हर संभव बरतने की कोशिश के साथ उन्होंने भगत सिंह और सशस्त्र क्रांतिकारियों की कार्यवाहियों की सबसे विस्तृत रिपोर्टिंग और निष्पक्ष विश्लेषण किया। उन्होंने अपनी पत्रकारिता की सफलता के लिए आजादी के संघर्ष में गांधी और भगत सिंह की परस्पर ‘विरोधी छवि’ को ‘पंच लाइन’ नहीं बनाया। उन्होंने आजादी के ‘संघर्ष’, सत्ता और राजनीति के लक्ष्य व उद्देश्य के संदर्भ में गांधी और भगत सिंह को आमने-सामने रखकर विचार किया। आजादी के आंदोलन के उस दौर में गणेशशंकर विद्यार्थी जहां गांधी के साथ थे, वहीं भगत सिंह को अपने साथ रखा। (जारी)