आज भारत के आसमान में विस्फोट हो रहा है। चित्र-विचित्र, आकर्षक और आक्रामक विस्फोट! भारत की जमीन से जनता देख रही है। सुन रही है। कुछ लोग चिंतित हैं। कई चकित हैं। और, अधिकांश गाफिल! चकित-चिंतित भी देख रहे हैं और गाफिल भी। जो नहीं देख रहे हैं, सुन-सुनकर उनकी आंखों में देखने से वंचित रहने की मजबूरी और मलाल झलक रहा है।
विराट आसमान में विस्फोट हो रहा है। अबूझ-अपार आनन्द का विस्फोट! सूचनाएं, ज्ञान-विज्ञान और मनोरंजन बरस रहा है। यह बारिश हर उस इंसान के लिए है जिसके पास आंख-कान हैं, जिसके पास आंख-कान से चलनेवाला दिल-दिमाग है। हालांकि सिर्फ आंख-कान होने भर से कोई न उस बारिश को देख सकता है और न उसमें भींग सकता है। उसके लिए ‘छोटा पर्दा’ चाहिए। हैसियत हो या न हो, चाहने भर की देर है, वह पर्दा झोपड़ी से लेकर पक्के मकानों के ‘बेड रूम’ तक में घुस सकता है। फिर तो वह पर्दा सब कुछ बेपर्दा कर सकता है। हर किसी को आनन्द की लूट-छूट की बारिश में इस कदर भिंगो सकता है कि इंसान खुद कपड़े उतारने को मजबूर हो जाये या कपड़े उतरवाने में मशगूल हो जाये।
इस विस्फोट के सृष्टिकर्ता-नियंता कहते हैं - यह विस्फोट नहीं, व्यापार है। टीवी के छोटे पर्दे के जरिये इसे देखनेवाली करोड़ों भारतीय आबादी समझी और नासमझी के बीच उलझी है कि आखिर यह क्या कार्य-व्यापार है?
विस्फोट का व्यापार करने वाले और कमाई लूटने वाले आसमान में नयी संस्कृति रच रहे हैं। उसका नाम है- ‘ब्रेक संस्कृति!’ करोड़ों भारतीय - जमीन से देखनेवाले देखने का लाभ लिये और न देखने वाले देखने का लोभ लिये - सवालिया लहजे में फुसफुसा रहे हैं - ‘हमारी संस्कृति ब्रेक हो रही है!’
अजब द्वंद्वात्मक दृश्य है ब्रेक संस्कृति की रचना और ब्रेक हो रही संस्कृति की चिन्ता-चेतना का! नेशनल, जी, स्टार, सीएनएन, बीबीसी, सन, सोनी, बीफोरयू, सहारा, ई, चैनल सेवेन, पे टीवी, केबुल टीवी…! सबके बीच होड़ लगी है। विस्फोट का व्यापार करने के लिए बिछते महाजाल पर कब्जा करने की होड़! होड़ में आर्थिक घात-प्रतिघात से क्षत-विक्षत होते हुए भी नयी ब्रेक संस्कृति की रचना के लिए उद्धत योद्धाओं की तरह जमी हैं चैनल व्यवसाय में लगी कम्पनियां। दूसरी ओर संस्कृति ब्रेक होने के चिन्ता-चिन्तन में डूबी आंखें देख रही हैं कि ब्रेक संस्कृति के जलवे भोगनेवालों, उनसे ज्यादा उसे देखनेवालों और उनसे भी ज्यादा देखना चाहनेवालों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। आसमान में बिछा महाजाल ‘मायाजाल’ बन रहा है!
भारत के आसमान, जमीन के बीच द्वंद्व का अनोखा दृश्य तो यह है कि संस्कृति की चिड़िया फड़फड़ा रही है। एक तरफ उसे आसमान के महाजाल में फंसाकर, पर काट कर नया रंग-रूप देने और उसे ही संस्कृति की नयी चिड़िया बनाने की होड़ मची है और दूसरी तरफ जमीन से उसे देखने के लोभ, लाभ, और चिन्ता में अपने हाथ से संस्कृति की चिड़िया छूटने (हाथ का तोता उड़ना!) का एहसास फैल रहा है।
कुल मिलाकर चारों ओर संस्कृति का शोर है। संस्कृति परकटी चिड़िया बनकर गाते-गाते रो रही है, रोते-रोते गा रही है - जमीन पर बेगाना होने और आसमान में फंसने का गीत कि ‘शिकारी आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, लोभ में फंसना नहीं।’ भारत के जमीनवालों ने संस्कृति की चिड़िया को पिंजड़े में डालकर सुरक्षा का जो गीत सिखाया, वही गीत वह आसमान के जाल में फंसकर, पर कटा कर, गा रही है।
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