मित्र-मिलन समारोह (जिसे कुछ साथी समारोह भी कहते/मानते हैं) में पहली बार संचालन समिति की ओर से पेश प्रारूप पर इतनी गंभीर और गर्म बहस हुई. प्रारूप का विषय था- देश की वर्तमान स्थिति का आकलन. साथी मंथन की अध्यक्षता वाली कमेटी द्वारा तैयार लंबा (चार पेज) प्रारूप नरेंद्र मोदी/एनडीए सरकार के कार्यकाल के दौरान देश के हालात पर केंद्रित था, जिसका स्वर स्वाभाविक ही (मेरी नजर में) भाजपा/संघ की मुखर आलोचना का था. प्रारूप में इस दौरान अर्थ व्यवस्था में आयी गिरावट, सरकार द्वारा कुछ पसंदीदा उद्योगपतियों को लाभ पहुँचानेवाली नीतियां लागू करने, नोटबंदी से आम आदमी को हुई परेशानी, किसानों की बढ़ती बदहाली, बेरोजगारी आदि के अलावा सत्ता पक्ष द्वारा जिस तरह धर्मान्धता को बढ़ावा दिया जा रहा है, उसकी कड़े शब्दों में आलोचना थी. साथ ही आगामी संसदीय चुनावों में भाजपा को सत्ता में आने से रोने के लिए हर संभव काम करने की वकालत भी. चंद अपवादों को छोड़ कर इस विषय पर बोलनेवाले तमाम वक्ताओं/साथियों ने प्रारूप का जोरदार समर्थन किया.

अपवाद का मुखर स्वर अरुण (दास) जी का था, जिनके अनुसार (जो मैं समझ सका) जरूरत से अधिक लम्बा और भाजपा/मोदी की आलोचना पर केन्द्रित था. कांग्रेस के दागदार अतीत को याद रखने की दुहाई देते हुए उनका मानना था कि हमें भाजपा या कांग्रेस की इस लड़ाई में नहीं पड़ना चाहिए, बलिक समग्र बदलाव के मूल काम में लगना चाहिए. किसी और वक्ता के कथन से (संयोग से तब मैं सदन में उपस्थित नहीं था) पता चला कि मधुकर जी भी प्रारूप से असहमत थे. संक्षेप में उनका कहना यह था कि हम कांगेस के शासन काल और इमरजेंसी की ज्यादतियों को कैसे भूल सकते हैं? कुछ और साथी प्रारूप की दिशा को लेकर संतुष्ट नहीं थे. उनमें जेके (धनबाद) और अरुणजी (उन्नाव, यूपी) शामिल थे.

उनके अलावा सर्वोदय से जुड़े (और संभवतः अतिथि के रूप में शामिल) आदित्य पटनायक ने भी अपनी असहमति दर्ज करायी.

कुछ लोगों ने एक बार फिर नये संगठन/दल की जरूत पर बल दिया, लेकिन माना गया कि जिनको ऐसा लगता है, वे अपने तईं ऐसी पहल करें, मित्र मिलन का परंपरागत स्वरुप बना रहना चाहिए, इसे संगठन बनाने का औजार भी नहीं बनाना चाहिए..

तय हुआ कि आगामी 26 जनवरी को देश भर में, जहाँ संभव हो, संविधान को केंद्र में रख कर कार्यक्रम आयोजित किया जाये. 30 जनवरी को भी महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर आयोजन हो, खुद या अन्य सहमाना संगठनों के साथ.

इस बार कुछ ऐसे लोग भी समारोह में शामिल दिखे, जो कभी वाहिनी के सदस्य नहीं रहे. जैसे विजय प्रताप (दिल्ली), राष्ट्र सेवा दल के सुरेश खैरनार और शहीद कमाल सहित कुछ अन्य. आयोजकों ने बताया हो, तो मैं नहीं सुन सका कि इन लोगों को बुलाया गया था तो किस हैसियत से; या ये खुद चले आये. वैसे मुझे उनके शामिल होने पर कोई आपत्ति नहीं थी/है.

हर बार की तरह इस बार भी वाहिनी के साथियों से अधिक उनके परिजनों की उपस्थिति थी. यह एक हद तक तो स्वाभाविक है, क्योंकि हमारे परिवारों का आकार बढ़ रहा है. लेकिन ऐसा लगा कि इस बार कुछ साथियों ने अपने ‘परिवार’ का दायरा बढ़ा लिया था. और ऐसे अधिकतर लोग सिर्फ पर्यटन के उद्देश्य से पहुँचते हैं, जिसका बोझ व्यवस्था पर पड़ता है.

व्यवस्था कुल मिला कर ठीक ठाक ही थी. थोड़ी अराजकता और अव्यवस्था न हो, तो वह वाहिनी का आयोजन कैसे होगा. हर बार कुछ साथी इस पिकनिकनुमा आयोजन से असंतुष्ट थे, निराश भी. मैं ऐसी कोई उम्मीद लेकर नहीं जाता, इसलिए बहुत निराश भी नहीं होता; और मानता हूँ कि आपस में (नाहक भी) मिलने जुलने का यह सिलसिला जारी रहना चाहिए.

मित्र-मिलन में कितने लोग कहां से शामिल हुए; और आय-व्यय का ब्यौरा तो आयोजन के केंद्र में रहे साथी अलग से देंगे ही.