1977 के बाद, आपातकाल की समाप्ति पर भारत में जब जनतांत्रिक परिवेश का निर्माण होने लगा तब बहुत सारे अभियान, जो किताबों और प्रस्तावों से बाहर निकल कर सड़कों पर आये, उनमें मानवाधिकार आंदोलन और नारीवादी आंदोलन प्रमुख है. यह संघर्ष वाहिनी के उठान का काल था. वाहिनी देश में (अन्य बातों के साथ) बहु इकाई वाला, नारीवादी आंदोलन बन चुका था.

इसी दौर में नारीवाद का मसला कस्बों-शहरों और कई जगह देहात तक का मसला बना, और इसने भारत में समानता की परंपरागत मान्यताओं में काफी कुछ जोड़ा. उसी दौर में, खासकर 1980 के बाद दिल्ली में जो नारीवादी समूह सामने आये, उनमें कमला भसीन एक हस्ती के रूप में उभरीं.

1987 में महिलाओं के कोटपुतली से दिल्ली मार्च के समय मोतीबाग से गांधी पीस फाउंडेशन तक की यात्रा के दौरान हम लोगों के साथ उनका सीधा संबंध बना.

वसंती दिघे ने उनका एक बहुत प्रभावशाली उद्धरण उनकी तस्वीर के साथ लगाया है. कमला भसीन ने जो रचनाएं लिखी पढ़ी, उनमें से और बहुत ही महत्वपूर्ण एक रंगीन चित्रित पुस्तक है, जो बच्चों के गीत या शिशु गीत के रूप में लिखी गई थी.

‘दाल की कचोरी, मूंग की मुंगोरी खाओ 4- 4, खाओ बार-बार..’

इन गीतों में उन सभी प्रतीकों को हटा दिया गया जो बच्चों के अंदर स्त्री-पुरुष भेद की भावना शुरू से ही बना दे. मां और पिता को बराबर दिखाया गया है. दैनिक जीवन के प्रतीकों के साथ यह बहुत ही रोचक पुस्तिका है और इसका पाठ्यक्रमों में उपयोग हो तो व्यापक स्तर पर लिंगभेद मुक्त वातावरण बनाने लायक है.

सन् 2018 में ‘नूतन स्मृति व्याख्यानमाला’ में कमला भसीन रांची आई थीं. इसके पहले सन 2000 के आसपास, बिहार में नारीवादी नेतृत्व की एकजुटता का एक दौर चला था. तब ‘वूमेन नेटवर्क’ के पटना समावेश में भी कमला भसीन आई थीं.

उनका जाना न केवल नारीवादी आंदोलन की क्षति है, बल्कि जनतांत्रिक परिवेश के लिए भी शोक का कारण है.