बिहार (पटना) के संचालक ने अनम्यूट हुए बिना ‘जनमत’ चर्चा शुरू की. दो पल बाद उनकी आवाज आने लगी, तो उनका चेहरा गायब हो गया. उनके विंडो से आवाज आ रही थी - “चुनाव का मौसम चल …है. देश के दलित… के माइंडसेट, वोटिंग ट्रेंड… पा… पैटर्न को समझने के लिए हम इस चर्चा में शामिल हुए हैं. इसमें बि… झा… यूपी, महाराष्ट्र, पंजा… एक्टिविस्ट छात्र शामिल…युवक…दिल्ली के विद्वान… प्रोफे…चकाचक….” कटते-कटते आवाज कट गयी, विंडो में अंधेरा छ गया और चैखट के बीच नेटवर्क कमजोर होने का छोटा-सा सर्किल घूमने लगा.

यह देख यूपी का एक युवक संचालक की बात दोहराते हुए बोला - “…चुनाव का मौसम चल रहा है. देश के लाखों दलित वोटरों के माइंडसेट, वोटिंग ट्रेंड और पैटर्न को समझने के लिए हम इस चर्चा में शामिल हुए हैं. आप सब जानते हैं कि क्या यूपी और क्या दिल्ली और पंजाब - सब जगह के सरकारी कार्यालय ‘चकाचक’ हैं. इससे मोदी-योगी की ‘हिन्दुत्ववादी बुलडोजर-सरकार’ से लेकर केजरीवाल की आतंकवादी ‘स्वीट सरकार’ और नीतीश कुमार की सुशासी ‘बाबू-सरकार’ तक गदगदायमान है. आप में से कई विद्वान् इलीट भी खुश होंगे. हम दलित इस महान् खुशी में खलल डालें, ऐसी हमारी हैसियत कहां?

फिर भी संचालक की अनुमति से, मैं एक छोटा-सा सवाल पेश करता हूं. सवाल ये है कि सरकारी कार्यालयों में जो ‘स्वीपर’ की नौकरी करते हैं, वे खड़े होकर और चलते-फिरते झाड़ू लगाने के दौरान थक कर कहां बैठते हैं? क्या सरकार के किसी भी विभाग या कार्यालय में, जहां रोज अनिवार्यतः झाड़ू लगता है, वहां स्वीपर के बैठने के लिए कोई स्टूल या बेंच है? या कि झाड़ू देनेवाले स्वीपर को नौकरी में थकने और थककर बैठने का अधिकार ही नहीं है?”

दलित युवक का सवाल सुनते ही ‘विद्वत मंडली’ चैंक उठी, जिसमें यूपी, महाराष्ट्र, बिहार, और झारखंड से लेकर दिल्ली, पंजाब तक के आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस से लैस विद्वान भी शामिल थे. अलग-अलग चैखटे से दिखते विद्वानों के इमेज जलने-बुझाने लगे. जलती-बुझती वह चमक कानाफूसी जैसी से होते-होते चिल्लाने की आवाज में तब्दील हो गयी. कुछ विद्वान् चेहरे सवालिया चुप्पी लिये टुकुर-टुकुर ताकते दिखे.

करीब 60 सेकेण्ड बाद आवाज के साथ हर विंडो का चेहरा स्थिर हुआ कि नयी दिल्ली (ग्रेटर कैलाश) के एक विद्वान् उत्तेजना में बोले- “ब्रेवो! इस दलित यूथ नें मेरे थीसिस को सही साबित कर दिया कि देश में ‘अनटचेबल डेमोक्रेसी’ और ‘डेमोक्रेटिक अनटचेबिलिटी’ के बीच निर्णायक संघर्ष का वक्त आ गया है….” बीच में ही पुरानी दिल्ली (चांदनी चैक) के एक विद्वान् ने जुमाला उछाला - “ये डेमोक्रेसी से पहले फ्रीडम का सवाल है, जो आजादी के बाद से अभी तक कायम है. यह ‘अनटचेबल फ्रीडम’ (अस्पृश्य स्वतंत्रता) और ‘फ्रीएबल अनटचेबिलिटी’ (स्वातंत्रीय अस्पृश्यता) के बीच किसी एक को चुनने का मामला है.”

तभी यूपी (लखनऊ) के एक विद्वान् एक्टिविस्ट की तरह मुठ्टी उछालते हुए चीखे - “जी नहीं, यूपी में आज लाखों गरीब दलित वोटरों को अपने वोट से यह डिसाइड करना है कि वे ‘फीयर ऑफ फ्रीडम’ (आजादी का भय) को चुनेंगे या कि वे ‘फियरलेस सपोर्ट ऑफ स्लेवरी’ (भयमुक्त दासता की मदद) पर मोहर लगायेंगे?” स्क्रीन के अलग-अलग विंडो से इस तरह के कई जुमले फिर उछल-कूद मचाने लगे. अपना सवाल लिये यूपी का युवक सहित महाराष्ट्र, पंजाब, बिहार के पढ़े-लिखे दलित युवक मूक दर्शक बने विद्वत मंडली के हाईटेक अकादमिक खेल निहारते रहे! उन्हें समझ में नहीं आया कि ये विद्वान् चुनावी दंगल में उतरे पार्टी नेताओं की तरह उन्हें मूर्ख समझ रहे हैं या कि मूर्ख बना रहे हैं?

इस बीच संचालक का चेहरा नमूदार हुआ, जो कुछ बोलने-टोकने के बजाय चुपचाप देखता-सुनता नजर आया - दलित-विकास का केजरीवाल-मॉडल, मोदी मॉडल, राहुल-मॉडल, आदि-आदि पर अटकता दृश्य-श्रव्य खेल. जो भटकते-भटकते मोदी-केजरीवाल, अमरिंदर-सिद्धू, प्रियंका-माया के रंग-बिरंगे रविदासी-नैरेटिव्स में फंसा. फिर इस फँसान से निकलने के लिए एक-दूसरे पर पत्थरों की तरह गांधी, अम्बेडकर, भगत सिंह के नाम फेंके जाने लगे. आजिज आकर पंजाब का दलित युवक जोर-जोर से संत रविदास के पदों का गायन करने लगा और देखते-देखते यूपी-बिहार के युवक पंजाब के सुर में सुर मिलाने लगे:

ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन.

पूजिए चरण चंडाल के जो होवे गुण परवीन।।

ऐसा चाहूं राज मैं जहां मिले सबन को अन्न।

छोट बड़ों सब सम वसै, रविदास रहे प्रसन्न।।

तब जाकर खेल थमा और बिहार के संचालक बुजुर्गाना अंदाज में बोले - “शांति-शांति! माफ करना दलित दोस्तो, आप जो सवाल रखना चाहते हैं, उनको सुने बगैर आपके बॉडी लैंग्वेजेज देखकर हमारे बीच मौजूद एक्सपर्ट्स और एक्सपीरियेंस्ड प्रोफेसर उत्तेजित हो उठे हैं. उनको शायद लगने लगा कि आपके सवाल ‘मॉडर्न’ नहीं, बल्कि ‘पोस्ट मॉडर्न’ सवाल हैं, जो विकास के राजमार्ग पर बरसों से पड़े हैं, उन पर अब तक किसी का ध्यान नहीं गया है. लेकिन, खैर, अब लगता है कि हमारे विद्वान मित्र इस कन्क्लूजन पर पहुंचे हैं कि पहले आपके सारे सवाल सुने जाएं, तब वे अपनी-अपनी थीसिस का उद्घाटन करें, ताकि शेड्यूल टाइम में सेमीनार का सारा काम निपट जाए. अभी करीब 15-20 मिनट का समय चला गया, लेकिन खैर, अभी एक घंटा बाकी है.”

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