2 मई, 2021 को संघर्ष वाहिनी धारा की साथी कनक का देहांत हो गया। वे कोरोनाग्रस्त माता- पिता एवं पति की देखभाल करते हुए स्वयं कोरोना पीड़ित हो गयीं और ऑक्सीजन लेवल कम होने पर अस्पताल गयीं। लगभग दस दिनों तक अस्पताल में जूझने के बाद साँस छोड़ गयीं।
कनक 64 - 65 वर्ष की थीं। कॉलेज के प्रारंभिक दिनों में ही वे 1974 के बिहार-छात्र आंदोलन से जुड़ गयी थीं। इमरजेन्सी के खौफ के दौर में भी वे सक्रिय रहीं। पटना साइंस कॉलेज से उन्होंने जुलॉजी ( जीव विज्ञान ) में एमएससी की पढ़ाई पूरी की। संगठन, विषय, कॉलेज और हॉस्टल हर जगह मणिमाला के साथ उनकी जोड़ी बनी रही। बहुत कम बोलने वाली, शांत, सौम्य कनक आम तौर पर आम मामलों में पहल लेती नहीं दिखती थीं। किंतु जहाँ लोग पहल करने में पीछे होते थे, वहाँ वे बिना आवाज पहल कर जाती थीं। पटना के पास के एक गाँव में साप्ताहिक प्रवास वाली पहल की टीम में वे रहीं। सबसे ज्यादा नियमित रहने वाली महिला साथी रहीं। बोधगया भूमि संघर्ष में गाँव जानेवाली पहली महिला साथी वे ही थीं। उन्होंने ही वाहिनी की शहरी लड़कियों का गाँव जाने का मानसिक अवरोध तोड़ा। उनके जाने के बाद और महिला साथियों को गाँव में जाकर रहना संभव और जरूरी लगा। समूह में कोई कटा कटा, अलग थलग रहता तो उस पर उनकी नजर रहती और उसे समूह में घोलने मिलाने, पूरी तरह शामिल कराने का सचेत प्रयास करतीं। साथियों के घरों में जाने, उनके परिवार से जुड़ने की पहल में वे जरूर रहतीं।
यहाँ बोधगया के ऐतिहासिक भूमि संघर्ष की कुछ विशिष्ट बातें दुहरा लें। लगभग 52 मठ-शाखा खाली हुआ। लगभग 6-7 हजार एकड़ जमीन बोधगया शंकराचार्य मठ के अमानुषिक और अवैध कब्जे से मुक्त कर दलित भूमिहीन मजदूरों और छोटे किसानों ने हासिल की। चार-पाँच गाँवों ने तो स्त्रियों, गाँव की बेटियों के नाम भी भूमि स्वामित्व के कागजात हासिल किये। यह स्त्रियों के नाम भूमि स्वामित्व लेने वाला इकलौता और पहला भूमि संघर्ष बना। और कनक जी उस संघर्ष की पहली पाँत की महिला नेता रहीं। छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के आरंभिक दिनों में गोवा में देश के प्रमुख नेतृत्वकारी साथियों का प्रशिक्षण शिविर हुआ था। उसमें बिहार से कनक और मणिमाला भी गयी थीं। कनक बिहार की प्रांतीय संयोजक- तीसरी या चैथी- बनीं। सक्रिय सदस्यों की औरंगाबाद बैठक में थीं। चिनावल राष्ट्रीय महिला शिविर में रहीं ( जैसा याद है )। नेशनल ड्राफ्टिंग कमिटी में रहीं।
बिहार प्रांतीय समिति के नियोजन पर सघन क्षेत्र में पूर्णकालिक तौर पर लगने की प्रक्रिया चलती थी। कनक और श्रीनिवास बोधगया सघन क्षेत्र में प्रांतीय नियोजन पर नियुक्त हुए थे। वे दोनों पीपरघट्टी गाँव में एक झोपड़ी में वर्षों रहे। अपनी बेटी रुनु (तब गोद में) को लेकर रहे। वे वहीं रहनेवाले भी थे। जब बिहार में संघर्ष वाहिनी में विवाद हुआ, दो प्रांतीय कमिटी बन गयी। बोधगया संघर्ष क्षेत्र पर भी दावे-प्रतिदावे हुए। जब उन पर इस या उस खेमे में रहने का दबाव बनने लगा, तो क्षुब्ध होकर उन्होंने दोनों समूहों से अलग रहने और क्षेत्र छोड़ने का फैसला किया।
वापस अपने परिवार में जाना पड़ा। मेधावी विद्यार्थी होने के बावजूद अब स्थायी लेक्चररशिप पाना आसान नहीं था। दो भिन्न कॉलेजों में कुछ महीने शिक्षण कार्य के बाद कनक प्रखंड ( इसवबा ) स्तर की सरकारी नौकरी में लेडीज एक्सटेंशन ऑफिसर बनीं. पहले कुछ माह भागलपुर में. फिर राँची जिले (बाद में झारखंड) में। इसी दौरान पीएचडी की. पर कभी नाम के साथ.डॉक्टर लिखने की ग्रंथि में नहीं फँसीं। नौकरी करते हुए राँची में एक व्यापक महिला संगठन की धुरी में रहीं। सारे राष्ट्रीय महिला सम्मेलनों की सहभागी रहीं। पहले सामूहिक संपादन में ‘नारी संवाद’ और बाद में ‘संभवा इंजोर’ पत्रिका निकाला। वाहिनी मित्र मिलन के आयोजन की प्रेरक धुरी, सशक्त स्तंभ रहीं।
कनक का परिवार अंतर्जातीय या जातिमुक्त परिवार रहा। पति श्रीनिवास प्रभात खबर के पत्रकार रहे। बेटी स्वाति शबनम (रूनु ) बिरसा कृषि विश्व विद्यालय, राँची में प्राध्यापक है। स्वाति पूरी तरह से संघर्ष वाहिनी विचारधारा की सक्षम वैचारिक एक्टिविस्ट है। अपनी बाद की पीढ़ी को छात्र- युवा संघर्ष वाहिनी में शामिल करने की पहल में भी कनक आगे रहीं। उनके समकक्ष या समवय लोगों ने शायद ही अपने बेटे बेटियों को छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी से जोड़ने की कोशिश की। वाहिनी विरासत से वितृष्णा या बच्चे के कैरियर के भटक जाने की आशंका या अज्ञात वजहों से अपने बच्चों को वाहिनी से बचाने वालों की बहुसंख्या में कनक जी का यह व्यक्तित्व खास तौर पर ध्यान देने योग्य है।
कनक की जिंदगी की कुछ बातें विवादास्पद रहीं। फिर भी उनकी पूरी जिंदगी एक स्वतंत्र और निर्णायक स्त्री की जिंदगी रही। अंत तक अपनी समझ, अपनी ख्वाहिश और अपने मानवीय पैमाने पर अन्तर्मुखी जिद्द या दृढ़ता से जीती रहीं। तीनों के सही संयोजन में असंतुलन तो हुआ ही होगा। उनकी अंतरंगता का घेरा ज्यादा बड़ा कभी नहीं रहा। किंतु सामान्य तौर पर वे अपनी सौम्य मुस्काती हँसती चुप्पी से अपनेपन का माहौल ही रचती रहीं। उनसे शिकायतें बहुतों को होंगी। चिढ़, गुस्सा या वैमनस्य शायद ही होगा।
स्वतंत्र स्त्री संगठन का अव्यावहारिक अतिवादी रुझान उनमें रहा। निष्पक्ष, ग्रूपिज्ममुक्त रहने की भावुक चाह से चिपकी रहीं। संघर्ष वाहिनी धारा के स्वतंत्र स्त्री संगठन की कोशिश को भी वह स्वतंत्र स्त्री सांगठनिकता के पैमाने पर अनपेक्षित मानती थीं। और संगठनों के बोलबाले वाले माहौल में ऐसा स्वतंत्र व्यापक दीर्घकालिक तथा समग्र बदलावी महिला संगठन बनाना बेहद कठिन था।
बोधगया से वापसी बाद वे किसी भी संगठन से औपचारिक रूप से नहीं जुड़ीं। एक अनौपचारिक सामूहिकता में ही सक्रिय रहीं। वे जितनी बड़ी और जरूरी भूमिका निभा सकती थीं, अपनी इस समझ और स्वभाव के कारण नहीं निभा सकीं।