कोर्ट ने कन्हैया से जुड़े मामले में कोग्निजेन्श लेने से इंकार कर दिया है और इस बहाने देशद्रोह का मामला जहां एकबार फिर सुर्खियों में है,वहीं इसकी प्रासंगिकता पर भी सवाल उठ रहे हैं। सवाल कन्हैया से जुड़ा न होकर इसके लगातार हो रहे दुरूपयोग को लेकर है। विरोध के स्वर को दबाने के लिए इस कानून का प्रयोग धड़ल्ले से होता रहा है। यहां तक कि कार्टून बनाने के आरोप में इस कानून के तहत असीम त्रिवेदी को २०१२ में गिरफ्तार किया गया था। तमिलनाडु सरकार ने इसी साल कुन्डलकुलम परमाणु प्लांट के विरोध में सड़क पर उतरे ७००० ग्रामीणों पर देशद्रोह का मुकदमा दायर हुआ था। वे जेल में डाल दिये गए थे। गुजरात में भी पाटीदार आंदोलन के दौरान इसका इस्तेमाल किया गया था। पिछले तीन साल में १७९ लोगों पर इस क़ानून के तहत मामले दर्ज हुए, लेकिन २ पर ही साबित हो पाये।
इसके दुरूपयोग की बात नई नहीं है। गुलामी के समय १८६० में बने इस कानून को १८७० में आईपीसी के छठे अध्याय में ब्रिटिश सरकार ने जोड़ा था। सबसे पहले इसका शिकार जोगेन्दर बोस नामक अखबार नवीस बना था। क ई स्वतंत्रता-संग्राम के नायक भी इसके शिकार बने थे। अब तो ब्रिटिश सरकार भी इस क़ानून को समाप्त कर दिया है। लेकिन दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक देश होने का दावा करने वाला भारत इसे और मजबूत करना चाहता है। अब तो देशद्रोह और राजद्रोह में घालमेल हो रहा है।
इस कानून को लेकर हर विपक्षी पार्टी मुखर होती है, जैसे अभी कांग्रेस के कपिल सिब्बल इसे हटाने की मांग कर रहे हैं। सत्ता में आने से पहले भाजपा भी यही कहती रही है। इसके कई बड़े नेता मानवाधिकार संगठन के साथ ही जनतांत्रिक आंदोलनों का नेतृत्व किया है, आज उनके स्वर बदले हुए हैं। स्थान बदलते ही बोल बदल जाते हैं।
बहरहाल, तकनीकी कारणों से कोर्ट भले कोग्निजेन्श लेने से इंकार कर दिया हो लेकिन मंशा से बात समझनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कई मुकदमे में इसे परिभाषित किया है, लेकिन उससे क्या, जेल की हवा तो खानी ही पड़ेगी। चूंकि इसके लिए जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई नहीं होती इसलिए भी यह आमतौर पर यहां होता है। हर व्यक्ति ऐसी घटनाओं से अवगत है।
हैरानी की बात यह है कि सत्ताधारी के बुने जाल में पड़ कर आम लोग भी उसकी हां में हां मिलाते नजर आते हैं। इसमें मीडिया भी सक्रिय भागीदारी निभाता है। इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।