आज के युवा औद्योगीकरण में रोजगार की संभावना देखते हैं. सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में रोजगार की स्थिति भिन्न थी. अब जो छोटे-छोटे निजी कारखाने लग रहे हैं, उनमें रोजगार करना कितनी अमानुष परिस्थितियों में काम करना है, वह करीब से देखने पर ही पता चलता है. न वहां काम करने वालों के साथ मानवोचित व्यवहार होता है और न सही मजदूरी मिलती है. कारखानेदार जल्लाद की तरह सर पर सवार हो काम लेता है और मक्खीचूस की तरह मजदूरी देता है. और देखने वाला कोई नहीं. हाल में नामकुम क्षेत्र के ऐसे ही कपड़े के कारखाने को मुझे करीब से देखने का अवसर मिला. उसे देख कर ऐसा लगा कि श्रम कानून जैसी कोई चीज अपने झारखंड राज्य में है ही नहीं.
उस कारखाना में करीबन एक हजार युवक युवतियां काम करते हैं. लड़कों से ज्यादा लड़कियां. काम दो शिफ्ट में होता है. सुबह की शिफ्ट 5 बजे से 1.30 तक. दूसरी शिफ्ट 1.30 बजे से रात दस बजे तक. काम के इन साढ़े आठ घंटों में एक पल भी बैठने का अवसर नहीं. काम कैसा और किस गति से वे चाहते हैं, इसके लिए एक छोटा सा उदाहरण. एक श्रमिक से उनकी अपेक्षा रहती है ि कवह एक घंटे में 40 सिले कपड़े को आईरन कर फोल्ड करे. उन पर लगातार नजर रखा जाता है. थकान से थोड़ी भी सुस्ती हुई, या काम में छोटी मोटी कोई गड़बड़ी, तो नजर रखने डांटने, फटकारने लगता है, जैसे श्रमिकों की कोई इज्जत ही नहीं.
और कठोर काम की मजदूरी क्या है? औसतन 8000 रुपये प्रतिमाह और हाथ में मिलता है 7000 रुपये. वे कहते हैं पीएफ का पैसा कटता है. सामान्यतः कारखाना से से कुछ दूरी पर जहां तहां काम करने वाली लड़कियां और लड़के किराये का मकान लेकर रहते हैं. मकान क्या, एकाध कमरा. उसका ही हजार रुपये से ज्यादा लग जाता है. फिर कारखाने की बस का किराया देना पड़ता है, क्योंकि काम उसे ही मिलता है जो बस से आने जाने को तैयार होता है और किराया दूरी के हिसाब से तय होता है. न्यूनतम पांच सौ रुपये. इस तरह हाथ में रह जाता है किराया और बस किराया दे कर साढ़े चार, पांच हजार रुपये.
मजबूरी की वजह से पढ़ी लिखी लड़कियां भी काम मांगने चली आती हैं. लेकिन वे पढ़े लिखों को काम नहीं देते. कम पढ़े लिखों को ही काम दिया जाता है. ताकि वे अन्याय को चुपचाप सहें. साथ ही काम देने के पहले सभी की मेडिकल जांच भी की जाती है. उन्हें किसी तरह की बीमारी तो नहीं. किसी की हाईट कम है तो काम पर नहीं रखते. काम पर नहीं रखें, लेकिन उसके साथ भद्दे ढ़ंग से व्यवहार करते हैं, उसकी खिल्ली उड़ाते हैं.
यानि कारखाना में वे दक्ष करीगर का काम लेते हैं, लेकिन मजूरी वही देते हैं जो नरेगा के लिए तय न्यूनतम मजदूरी है. लेकिन इसकी फरियाद किससे की जाये. काम के स्थल पर कैमरा लगा कर रखा गया है. कोई आपस में बात नहीं कर सकता. हर वक्त खौफ रहता है कि हम पर नजर रखी जा रही है. इसलिए संघबद्ध हो कर अपने अधिकार के लिए संघर्ष करने का भी अवसर नहीं. लेकिन हालात के मारे लड़के लड़कियां क्या करें? जिनके पास किसी तरह का जीवनाधार है, वे वहां से भाग जाती हैं कुछ दिन काम करके, जिनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं, वे काम करती रहती हैं मशीनवत और धीरे-धीरे खुद भी मशीन बन जाती हैं, मशीन की तरह भावशून्य.