इंदिरा इज इंडिया जैसा नारा उनके चाटुकार लगाते थे. इंदिरा गांधी भारत नहीं थीं. उसी तरह नरेंद्र मोदी भी भारत या हिंदू समाज के पर्याय नहीं हैं. आरएसएस हिंदू समाज का पर्यायवाची नहीं है.
मुसलिम लीग, तालिबान या अकयादा अलग अलग संगठन हैं. ये जो भी दावा करें, ये इसलाम और मुसलिम समाज के पर्याय नहीं हैं.
हमास एक फिलस्तीनी संगठन है. वह भी फिलस्तीनी समुदाय का पर्याय नहीं है, न ही मुसलिम समाज का प्रतिनिधि. वह ऐसा दावा भी नहीं करता.
मगर इजराइल के प्रति आपकी सहानुभूति के मूल में यह हो कि आपने ‘हमास’ को मुसलमान मान लिया है. आज जो दल और जमात आपको आदर्श लग रहा है, उसके विद्वानों का लिखा पलट लीजिये. वे जर्मनी (हिटलर) की इस बात के लिए प्रशंसा करते दिख जायेंगे कि उसने अपने देश की साम्प्रदायिक समस्या का सफलतापूर्वक ‘निदान’ (समस्या के कारण को मिटा कर) लिया.
जर्मनी में सताए गए उन्हीं यहूदियों का देश इजराइल अब ‘अपना’ लगने लगा है, क्योंकि वह ‘उन लोगों’ को सबक सिखा रहा है, घरेलू मोर्चे पर आप जिनको सबक सिखा रहे हैं.
इजराइल के बदले की आग में फिलस्तीन जल रहा है, और मानवाधिकार के कथित पैरोकार देश चुप हैं. यूएनओ की संहिता के मुताबिक ऐसा करना ‘युद्ध अपराध’ है. लेकिन विश्व शांति के उद्देश्य से गठित संयुक्त राष्ट्र संघ तमाशबीन बना हुआ है.
दुनिया क्या सचमुच ‘ग्लोबल विलेज’ बन रही है. क्या मानव समाज सचमुच ‘सभ्य’ हो रहा है! सच यह है कि हमारी दुनिया आज भी रंग और नस्ल के आधार पर विभाजित है. ‘धर्म’ भी उसका एक आधार है. इजराइल- हमास जंग में भी यह साफ नजर आ रहा है.
हम ‘भारतीयों’ (‘देशभक्त’ ब्रांड के) ने भी साइड चुन लिया है. हमें हमास में आतंकवाद ही नहीं दिख रहा, खास रंग का आतंकवाद दिख रहा है. वैसे भी हमें कपड़ों के आधार पर दंगाइयों को पहचानने का ज्ञान है.
यदि आप उस गलीज मानसिकता से ग्रस्त नहीं हैं और ‘हमास’ की नृशंसता से चिढ़े हुए हैं, तब उसके ‘अपराध’की सजा जिस तरह पूरे फिलस्तीनी समुदाय को दी जा रही है, उसका समर्थन करने से पहले जरा सोच लीजिए. अपनी जन्मना धार्मिक पहचान से ऊपर उठ कर अपने विवेक (यदि बचा हुआ हो) से पूछिए.
इजराइल कह रहा है कि हम युद्ध के किसी नियम को नहीं मानते, इसलिए कि उसके निशाने पर ‘हमास’ नहीं, एक पूरी कौम है.