विपक्ष को जितना भी कोस लें, लोकतांत्रिक तरीके से भाजपा से मुक्ति का रास्ता तो चुनाव में इनको पराजित करना ही हो सकता है. और इस रास्ते से गैर भाजपा ताकतों को सत्ता में आना है, तो यह विपक्षी दलों की एकजुटता से संभव होगा. ‘सांपनाथ बनाम नागनाथ’ जैसी बातें हमेशा से कही जाती रही हैं. यह भी कि उनमें से ही एक को चुनना जनता की लाचारी है. यह सर्वथा गलत भी नहीं है. लेकिन यही सच्चाई है और आगे भी हमें- जनता को उनमें से एक को चुनना होगा. जाहिर है, हमें यह देखना होगा कि सांपनाथ और नागनाथ में से कम जहरीला कौन है. और कौन अधिक जहरीला है, इस पर शायद विवाद की गुंजाइश नहीं है, कम से कम हम जैसे लोगों में.
बेशक हमें विपक्षी दलों से सवाल पूछते रहना चाहिए. कुछ मुद्दों पर साफ घोषणाएं करने का जन-दबाव बनाने का भी प्रयास करना चाहिए.
हाल में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों का जैसे भी विश्लेषण किया जाए, लेकिन ये जितने निराशाजनक दीखते हैं, उतने शायद हैं नहीं. जिन राज्यों में भाजपा जीती है, उनमें भी विपक्ष यानी कांग्रेस मत प्रतिशत के लिहाज से, हाशिये पर नहीं है. यदि लोकसभा के चुनाव में भी यही ट्रेंड रहा तो भाजपा को पिछले संसदीय चुनाव में इन राज्यों में मिली सीटों की संख्या कम होनी तय है, जिसकी भरपाई आसान नहीं होगी. तेलंगाना में कांग्रेस की वापसी का महत्त्व उत्तर के तीन राज्यों के नतीजों से कम जरूर हो गया, लेकिन अगली लोकसभा के गणित पर उसका असर होना ही है.
बेशक संसदीय चुनाव एकदम भिन्न माहौल में और मुद्दों पर होता है और तब एडवांटेज मोदी रहेगा. लेकिन कथित ‘मोदी मैजिक’ की सीमा भी दिखने लगी है. कर्नाटक से लेकर पंजाब और हिमाचल तक दिखी है. हम जो कर सकते हैं, अवश्य करें, लेकिन हम जिस बदलाब को जरूरी मानते हैं, जिसकी कामना और उम्मीद करते हैं, उसके लिए एकजुट विपक्ष जरूरी शर्त है. और इस मामले में हम कुछ खास नहीं कर सकते. यदि कुछ सकारात्मक होगा, तो वह विपक्षी दलों के साझा प्रयास से ही होगा, इस बारे में कोई भ्रम नहीं है. यह उन दलों के भविष्य और वजूद से भी जुड़ा है. आपसी तकरार और अहं का टकराव आड़े आया, तो वे आत्मघात ही करेंगे.
तमाम आशंकाओं व निराशाओं के बावजूद उम्मीद और मनोबल तो बनाये रखना ही चाहिए.